Saturday 6 October 2012

“परिवर्तन”


मेरी प्रस्तुत कविता समाज के वैसे आग्रहों के प्रति जो जड़ता के हद तक रूढ़ीवादी है, और समय के साथ बदलना नहीं चाहती है, लेकिन जिसका बदलना अवश्यम्भावी है.
  
सुन्दर हैं ख्वाब, पलने दीजिए,
नई चली है हवा, बहने दीजिए.
ज़माना बदल रहा है, आप भी बदलिए ,
पुराने ख्यालों को रहने दीजिए.
बहुत पुरानी हो गयी थी दीवारें,
अब जरूरत नहीं है तो ढहने दीजिए
क़ैद में थे परिंदे कभी से,
अब आजाद है तो उड़ने दीजिए.
बहुत चुभें है हाथों में कांटे,
अब खिले हैं फूल तो महकने दीजिए.
.............. “नीरज कुमार”

7 comments:

  1. मैंने facebook पर पहले ही इसकी तारीफ की है , ये कविता बहुत अच्छी है |

    सादर
    -आकाश

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  2. बहुत बहुत आभार आकाश जी, आते रहिएगा.

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  3. परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है....
    बहुत सुन्दर नीरज जी..

    अनु

    वर्ड वेरिफिकेशन हटा दीजिए..टिप्पणी करना आसान हो जाएगा

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    Replies
    1. बहुत आभार अनु जी. वर्ड वेरिफिकेसन कैसे हटाया जाये, मुझे कृपया बताइयेगा.

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  4. सरल शब्दों में गहरी बातें कही नीरज !! बधाई

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