Tuesday 28 January 2014

भूख और भविष्य


लाल पीली बत्तियों में सत्य दिखाई नहीं देता.
बैठ कर दिल्ली से साहब भारत दिखाई नहीं देता. 

सीढियां चढ़ गये ऊपर बहोत अब नीचे देखने से, 
आदमी अच्छा ख़ासा, आदमी दिखाई नहीं देता. 

कोई मर जाए पड़ोस में पड़ोसी को खबर ही नहीं,
राब्ता पड़ोसी का पडोसी से दिखाई नहीं देता.

भूख,  पेट की आती है देश और धर्म से पहले,  
आदमी भूखा हो तो भविष्य दिखाई नहीं देता. 

लाभ अपना, सुख अपना, अपनी अपनी खोल में बंद, 
जिन्दा आदमी भी अब जिन्दा दिखाई नहीं देता.. 
... Neeraj Kumar Neer  #neeraj_kumar_neer 

चित्र गूगल से साभार 

Friday 24 January 2014

मंदरा मुंडा


(प्रस्तुत कविता झारखण्ड, छत्तीसगढ़ आदि क्षेत्रों में फैली सामाजिक, आर्थिक समस्या के ऊपर केन्द्रित है, कैसे कोई समस्या एक दुष्चक्र में परिणत हो जाती है एवं उसका नुकसान आम भोले भाले लोगों को भुगतना पड़ता है . मंदरा  मुंडा एक प्रतिनिधि है उसी भोले भाले आम आदमी का. थोड़ी संवेदनशीलता जरूरी है , आराम से पढ़िए और फिर बात दिल तक पहुचे तो अपना समर्थन अवश्य दें )
(जनकृति में प्रकाशित)
मंदरा मुंडा के घर में है फाका,
गाँव में नहीं हुई है बारिश, 
पड़ा है अकाल. 
जंगल जाने पर 
सरकार ने लगा दी है रोक ,
जंगल, जहाँ मंदरा पैदा हुआ, 
जहाँ बसती है, 
उसके पूर्वजों की आत्मा.
भूख विवेक हर लेता है. 
उसके बेटों में है छटपटाहट. 
एक बेटा बन जाता है नक्सली. 
रहता है जंगलों में. 
वसूलता है लेवी. 
दुसरे को कराता है भरती 
पुलिस में.
बड़े साहब को ठोक कर आया है सलामी 
चांदी के बूट से .
चुनाव आने पर,
नक्सली बेटा वोट करता है मैनेज 
चुनाव के बाद नेता 
बन जाता है मंत्री. 
गाँव में बुलाता है पुलिस 
होते हैं दोनों भाई 
आमने सामने.
अपनी अपनी बन्दूको के साथ
गिरती है लाश 
मरता है लोक तंत्र 
इस लाश को मत ओढाओ तिरंगा. 
ढको इसे सफ़ेद चादर से, 
रंग तो प्रतीक होता है, 
ख़ुशी और हर्ष का.
मदरा मुंडा के घर में पड़ा है शोक. 
फिर पड़ा है फाका, 
जंगल जाने पर 
अभी भी है रोक.

.. नीरज कुमार नीर ..  
#neeraj_kumar_neer 

चित्र गूगल से साभार 

Tuesday 21 January 2014

एकलव्य का अंगूठा


संस्कृति का क्रम अटूट
पांच हज़ार वर्षों से 
अनवरत घूमता
सभ्यता का 
क्रूर पहिया.
दामन में छद्म ऐतिहासिक
सौन्दर्य बोध के बहाने
छुपाये दमन का खूनी दाग,
आत्माभिमान से अंधी
पांडित्य पूर्ण सांस्कृतिक गौरव का
दंभ भरती 
सभ्यता.
मोहनजोदड़ो की कत्लगाह से भागे लोगों से
छिनती रही 
अनवरत, 
उनके अधिकार,  
किया जाता रहा वंचित, 
जीने के मूलभूत अधिकार से, 
कुचल कर  सम्मान 
मिटा दी गयी
आदमी और पशु के बीच की
मोटी सीमा.
छीन लिया उनका भगवान भी 
कर दिया स्थापित 
अपने मंदिर में 
बनाकर महादेव.
अपना कटा अंगूठा लिए एकलव्य 
फिरता रहा जंगल जंगल
रिसता  रहा उसका खून 
सदियों से वह भोग रहा है असह्य पीड़ा. 
बिजलियों सी कौंध रही है 
धनुष चलाने की 
उसकी इच्छा है दमित . 
द्रोणाचार्य की आरक्षित विद्या 
देश, समाज को सदा नहीं रख सकी सुरक्षित.
यवनों ने अपनी रूक्षता के आगे 
कर दिया घुटने टेकने को मजबूर.
सदियों सिजदे में झुका रहा सर.
झुके हुए सर से भी  नहीं देखा 
नीचे एकलव्य के अंगूठे से रिसता खून 
बंद कर लिया स्वयं को 
शंख शल्क में.
खंडित शौर्य एवं अभिमान के बाद भी 
एकलव्य की पीड़ा अनदेखी रही 
मोहनजोदड़ो की कत्लगाह की 
सीमा अब फ़ैल रही है 
जंगलों , घाटियों और कंदराओं तक , 
अब पर्ण कुटियों के नीचे खोजा जा रहा है  
कीमती धातु , कोयला, लोहा, यूरेनियम , सोना.
अपनी जमीन और जंगल से किये जा रहे हैं विस्थापित
कभी भय से कभी लालच देकर , 
एकलव्य के कटे अंगूठे में अभी भी है प्राण,
अभी भी है छटपटाहट 
पुनर्जीवित होने की और 
खीचने की प्रत्यंचा.
एक दिन एकलव्य का अंगूठा 
जुड़ जाएगा और
वह वाण पर रखकर तीर 
उसी अंगूठे से खीचेगा प्रत्यंचा 
और भेदेगा 
द्रोणाचार्य के आत्माभिमान को 
लग जाएगी आग सोने के खानों में. 

.... नीरज कुमार नीर #neeraj_kumar_neer
(अगर बात दिल तक पहुचे तो अपनी टिप्पणी अवश्य दें )

चित्र गूगल से साभार 


Wednesday 15 January 2014

आसमान से ऊपर का बाग़

वागर्थ के अप्रैल 2015 अंक में प्रकाशित ....

आसमान से ऊपर 
है एक सुन्दर बाग़ 
जहाँ रहती हैं परियां 
नाजुक मुलायम 
ऊन के गोले सी.
खिलते हैं सुवासित
सुन्दर  फूल.
वहां बहती है एक नदी,
जिसमे परियां करती है कलोल, 
उडाती है एक दुसरे पर छीटे, 
जिससे होती है धरती पर 
हल्की बारिश लेकिन 
धरती रह जाती है प्यासी. 
जब कभी नदी तोड़ती है तटबंध
आ जाती धरती पर बाढ़. 
और सब कुछ हो जाता तबाह. 
उस बाग़ में लग जाएगी आग. 
एकलव्य का कटा हुआ अंगूठा 
जुड़ गया है वापस.
आदिवासी गाँव का एक लड़का 
छोड़ेगा अग्निवाण. 
जल जाएगा आसमान से ऊपर का बाग़. 
अब आदिवासियों के गाँव में 
नाचेगी परियां,
खिलेंगे महकते फूल, 
बहेगी एक सुन्दर नदी.

नीरज कुमार नीर 
#neeraj_kumar_neer 

Sunday 12 January 2014

औरत और नदी


औरत जब करती है
अपने अस्तित्व की तलाश और 
बनाना चाहती है 
अपनी स्वतंत्र राह -
पर्वत  से बाहर 
उतरकर 
समतल मैदानों में .
उसकी यात्रा शुरू होती है 
पत्थरों के बीच से 
दुराग्रही पत्थरों को काटकर 
वह बनाती है घाटियाँ 
आगे बढ़ने के लिए 
पर्वत उसे रखना चाहता है कैद 
अपनी बलिष्ठ भुजाओं में 
पहना कर अपने अभिमान की बेड़ियाँ,
खड़े करता है,
कदम दर कदम अवरोध .
उफनती , फुफकारती , लहराती 
अवरोधों को जब मिटाती है औरत 
कहलाती है उच्छृन्खल.
औरत जब तोड़ती है तटबंध 
करती है विस्तार 
अपने पाटों का  
अपने आस पास के परिवेश को 
बना देती है उर्वरा
चारो और खिल उठता है नया जीवन 
वह बन जाती है पूजनीया 
कहलाती है गंगा ..
... नीरज कुमार नीर ..
#neeraj_kumar_neer 

चित्र गूगल से साभार 

Tuesday 7 January 2014

सर्दी और गरीबन

संवेदन में प्रकाशित 
-------------------

कंपकपायी धरती ठंढ से
पत्थर से पानी निकला 
सिहर  कर आयी चाँदनी
सूरज कम्बल डाल के निकला ....

कपडे गर्म पहन कर टॉमी,
हीटर की गरमी में सोया.
भूख की चादर ओढ़ गरीबन,
ठिठुरा सारी रात न सोया..

सूखे छाती से चिपका नन्हे
थक गया पर दूध ना निकला..

पेट सटाकर घुटनों से
गठरी बनकर पड़ा रहा
पात हीन वृक्ष सरीखा
हिले डुले बिन अड़ा रहा .

बाहर से कड़े  बर्फ सा
भीतर में पानी सा पिघला

सर्द हवा में गीला चाँद,
मुंह चिढाता टेढ़ा चाँद,
माचिस की तिल्ली, बीड़ी का धुंआ,
भूखी आँखों से धुंधला चाँद,

आँखें हुई सफ़ेद,
छुप गया फिर चाँद न निकला ...
#neeraj_kumar_neer 
.. नीरज कुमार नीर 
(बात अगर दिल तक पहुचे तो टिप्पणी के माध्यम से समर्थन अवश्य दें )
#neeraj_kumar_neer 
चित्र गूगल से साभार 

Saturday 4 January 2014

नदी मर गयी

साहित्यिक पत्रिका संवेदन में प्रकाशित 
---------------------------


नदी मर गयी, 
बहुत तड़पने के बाद.
घाव मवादी था. 
आती है अब महक. 
अब शहर में गिद्ध नहीं आते.
कुत्ते लगाते हैं दौड़
उसकी मृत देह पर 
फिर भाग खड़े होते हैं.
नदी जवान थी, खूबसूरत. 
वह थी चिर यौवना.
भर देती थी जीवन से.
खेलती थी , करती थी अठखेलियाँ, 
छूकर कभी इस किनारे को 
कभी उस किनारे को. 
उछालती जल, करती कल्लोल, 
भिंगोती तट के पीपल को. 
पुरबाई में पीपल का पेड़ 
झूम कर करता था अभिषेक. 
करता अपने प्रिय पातों का अर्पण
प्रेम के भेट स्वरुप ..
दाह से पहले , ठंढे शीतल जल में 
जब मृत शरीर को कराते  थे स्नान,
आत्मा तृप्त हो उठती थी .
चहचहा उठता था  घने पीपल पर 
बैठा पक्षियों का समूह ,
मानो गवाही देता था 
स्वर्ग की सीढ़ी के उतरने का.
जीवन तभी तक है 
जब तक गति है. 
नदी किनारे रहने वाला हंसों का जोड़ा 
उड़ गया ....
नये  ठौर की तलाश में ..
वहां अब उग आयीं है
कुछ  झुग्गियां 
जहाँ कुत्ते नहीं रहते 
रहते है आदमी 
जिन्हें मंजूर होता है 
नरक , 
दो वक्त की रोटियों के बदले 
शहर बड़ा हो गया 
और नदी मर गयी ..
#neeraj_kumar_neer 
.. नीरज कुमार नीर 
   (बात अगर दिल तक पहुचे तो टिप्पणी के माध्यम से समर्थन अवश्य दें )
चित्र गूगल से साभार 

Thursday 2 January 2014

बदल गया कैलेण्डर

बाहर सब उजला उजला 
तम कितना पर अन्दर .
आया पुनः नव वर्ष,
बदल गया कैलेण्डर.

देह वही, सांस वही,
भोग वही, चाह वही,
तमस में द्वार नहीं,
कफस से राह नहीं.
आ गया जनवरी
कल था दिसंबर ..

भवन ऊँचे छूते आकाश
उस पार मैला प्रकाश ,
प्राचीर ऊँची , गिरे विचार.
लाचार ठंढे बेबस 
उच्छ्वास ..
अन्दर अन्दर मथता है
विचारों का बवंडर ..

राजनीति में नीति का
नित्य-नित्य  उल्लंघन
भाग्य विधाता बन कर बैठे 
विचारों की थाली के बैंगन ..
जो कुछ बाहर दिखता है
है वही नहीं अन्दर ..

नव वर्ष आया ,
बदल गया कैलेण्डर.
#neeraj_kumar_neer 
... नीरज कुमार नीर 
    (बात अगर दिल तक पहुचे तो टिप्पणी के माध्यम से समर्थन अवश्य दें )
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...