Thursday 26 October 2017

छठ सकारात्मकता का पर्व है


मैंने कुछ दिनों पूर्व दिवाली के अवसर पर लिखा था कुछ लोग हर बात में नकारात्मकता ढूंढ लेते हैं या नकारात्मकता पैदा कर देते हैं.

मेरे पिता जी के एक मित्र थे, उनका नाम था जगेश्वर पंडित.. एक व्यस्त नेशनल हाईवे पर उनका एक ढाबा था जो उन दिनों बहुत अच्छा चलता था. पिताजी से उनकी गाढ़ी दोस्ती थी. यहाँ यह बताना जरूरी है कि वे ब्राह्मण नहीं बल्कि कुम्हार थे . वे तंत्र साधना करते थे. हालांकि उनकी तंत्र साधना भी एक विचित्र प्रकार की थी, जो हिन्दू एवं मुस्लिम तरीकों का एक मिला जुला रूप था. कभी कभी यह भ्रम हो सकता था कि वे मुस्लिम तरीके से साधना करते हैं तो कभी यह लगता कि वे काली के बड़े उपासक है. खैर, लब्बो लुआब यही है कि वे तंत्र मन्त्र में यकीन रखने वाले एक साधक थे.

उन दिनों मैं नया नया जवान हो रहा था एवं नया नया विद्रोही भी . हर बात का विरोध करना, हर बात को नकार देना, हर स्थापित मान्यता के विरुद्ध तर्क करना मेरा नया शगल था. शायद ११ वीं या १२ वीं में पढता था. राहुल सांकृत्यायन की किताब “वोल्गा से गंगा तक” जिसका उन दिनों मेरी विचार धारा पर गहरा प्रभाव पड़ा था को तब पढ़ चूका था या नहीं, ठीक से याद नहीं है. लेकिन इस बात में गहरा यकीन हो चला था कि तर्क किये बिना किसी बात पर यकीन नहीं करना चाहिए. हालांकि यह अलग बात है कि उस छोटे उम्र में तर्क एवं समझ की भी अपनी सीमा थी क्योंकि तब तक अध्ययन का भी अपना एक सीमित दायरा ही था .

उसी समय की बात है जब मैं एक बार बीमार पड़  गया था . समस्या कुछ ऐसी थी कि उस समय उपलब्ध चिकित्सीय सहायता के बाबजूद अपेक्षित लाभ नहीं हो रहा था. परीक्षा की घड़ी भी नजदीक आ रही थी . घर में सब लोग परेशान थे. एक दिन पिताजी एक ताबीज  लेकर आये और कहा कि जगेश्वर पंडित ने इसे दिया है , इसे अपने बांह पर बाँध लो.  लेकिन मैं तो तब अपनी तर्क बुद्धि के खोखले  अहम् से बुरी तरह ग्रसित था और मुझे पूरा यकीन था कि इस ताबीज आदि से कुछ होने जाने को नहीं है,  तो मैंने उसे कहीं किनारे रख दिया. कल होकर पिताजी आये और पूछा कि ताबीज बंधा था. मैंने कहा नहीं और उन्हें अपनी तर्क बुद्धि से समझाने का प्रयत्न करने लगा कि कैसे ताबीज आदि से कुछ प्रभाव नहीं होने वाला. इस बात से पिताजी अत्यंत दुखी हुए . उन्होंने कुछ नहीं कहा पर उनके चेहरे पर उनकी पीड़ा पढ़ी जा सकती थी. फिर उन्होंने कहा कि ठीक है मान लिया इससे कुछ नहीं होने वाला. लेकिन उस आदमी की भावना की तो क़द्र तुम्हें करनी चाहिए थी जिसने पूरी रात जागकर इस ताबीज को बनाया था. उसने कितनी श्रद्धा, प्रेम, विश्वास और तुम्हारे स्वस्थ होने की कामना के साथ निःस्वार्थ भाव से पूरी रात मेहनत करके इसे बनाया. वे चले गए और मैंने अनमने ढंग से उस ताबीज को अपनी बांह पर बाँध लिया  . बाद में मैंने उसे खोलकर भी देखा था. वह कोई धातू का ताबीज जैसा कि सामान्य रूप से होता है, नहीं था बल्कि पीपल के पत्ते पर बहुत ही महीन महीन अक्षरों में कुछ लिखकर उसे एक प्लास्टिक की पन्नी से लपेट कर धागे से बांध दिया गया था.   उस पीपल के पत्ते पर जिस तरह से महीन अक्षरों में लिखा गया था वह हैरान कर देने वाला था. लिखने के लिए कलम या स्याही का इस्तेमाल नहीं किया गया था .
अभी एक प्रसिद्ध लेखिका ने कहा कि बिहार की औरते छठ के अवसर पर नाक तक सिंदूर  क्यों पोत  लेती हैं. ..
छठ एक लोक आस्था का पर्व है. छठ सादगी, स्वच्छता, तपस्या एवं प्रार्थना का पर्व है. छठ लोक गीतों का पर्व है, छठ मनौतियों का पर्व है.  छठ स्थानीय संसाधनों से मनाया जाने वाला एवं प्रकृति के प्रति अपना प्रेम व समर्पण प्रदर्शित करने का पर्व है .   दिवाली में तो लोग अपने घरों की सफाई करते हैं, छठ के अवसर पर गलियों, सड़कों को साफ़ करके उसपर पानी का छिडकाव करने की श्रेष्ठ  परंपरा है. छठ के अवसर पर नदी घाटों को,  तालाबों को साफ़ सुथरा किया जाता है. समाज के युवा अपनी मर्जी से घाटों एवं रास्तों की सफाई करते आपको दिख जायेंगे. इसके लिए किसी एलान की जरूरत नहीं पड़ती है. यह स्वस्फूर्त चेतना के वशीभूत होता है. छठ के अवसर पर देश विदेश में रहने वाले गाँव घर के बच्चे अपनी जड़ों की ओर लौटते हैं एवं अपनी मिटटी की महक एवं सांस्कृतिक बोध  को लेकर वापस लौटते हैं. जो अगले वर्ष तक उन्हें गाँव परिवार से जोड़े रखता है. छठ एक ऐसा पर्व है, जिसमे कोई छोटा , बड़ा नहीं होता, किसी पंडित पुरोहित की जरूरत नहीं होती . सब लोग एक साथ एक ही स्थान पर पानी में खड़े होकर पहले दिन डूबते सूर्य को और फिर अगले दिन उगते सूर्य को अर्घ्य देते हैं. कोई मूर्ति नहीं , कोई खास विधान एवं प्रक्रिया नहीं .... कोई मंत्र नहीं . प्रकृति के साथ तादात्म्य होने का एक ऐसा अनूठा उदहारण अन्यत्र शायद दुर्लभ ही हो .

कुल मिलाकर देखें तो यह पर्व हर तरह से positivity से भरा हुआ है. जो आपके जीवन को सुखमय बनाने में मदद करता है . परिवार में, समाज में और सबसे बढ़ के आपके भीतर सकारात्मकता भरने में मदद करता है. लेकिन जिन्हें हर चीज में नकारात्मकता ढूँढने की आदत है उनका क्या ? उन्हें इस चार दिवसीय पर्व में कुछ नहीं मिला तो कह दिया कि महिलाएं नाक तक सिन्दूर क्यों पोत लेती है. अब लीजिये हमारी मर्जी है साहब हम सिन्दूर से नाक पोत लें या सिन्दूर से नहा लें. आपको आपत्ति क्या है? दुर्गा पूजा में बंगाली औरते सिन्दूर खेलती है . पूरा शरीर उनका सिन्दूर से भर जाता है. सिर्फ नाक ही नहीं मुँह, कान, बाल, गला सब कुछ. आपने कभी अपने मांग में सिन्दूर नहीं भरा, किसी ने आपसे पूछा आप मांग में सिन्दूर क्यों नहीं डालती हो? आपको सिन्दूर से नाक पोताई से आपत्ति तब होनी चाहिए थी जब आपको यह जबरन कहा जाता कि आप भी अपने नाक पर सिन्दूर पोत लो. लेकिन यह तो हमारे समाज की सुन्दरता है जो आपको अपने इच्छा के अनुसार कार्य करने की सहज अनुमति देता है. वरना कहीं तो बिना हिज़ाब के निकलने पर कोड़े  मारने की भी व्यवस्था है.

ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने छठ को सिर्फ तस्वीरों के माध्यम से देखा और जाना है . उन्हें यह नहीं पता है कि सिर्फ छठ में ही नहीं कई और अन्य अवसरों पर मसलन शादी ब्याह में,  देवी का खोइछा भरने में, किसी बच्चे की छठ्ठी के अवसर पर भी नाक तक सिन्दूर तोप दिया जाता है.   सिन्दूर सौभाग्य व समृद्धि का प्रतीक है. यह लोकाचार है . इसके पीछे कोई आदेश नहीं है , नहीं मानने पर कोई सजा नहीं है . यह आपकी स्वतंत्रता है कि आप इसे माने या न माने. मैंने कभी किसी भी परम्परा को निभाने के लिए अपने समाज में किसी पर दवाब बनाते नहीं देखा. किसी चीज को लेकर दो तरह का दृष्टिकोण हो सकता है.

अपने घोर नास्तिकता के काल में मैं पूजा पाठ नहीं करता था. मंदिर नहीं जाता था. मंदिर गया भी तो गर्भ गृह में नहीं जाता था. मुझ पर किसी ने दवाब नहीं दिया कि  मुझे ऐसा करना चाहिए या वैसा नहीं करना चाहिए. मैं आज भी मूर्ती पूजा नहीं करता हूँ यद्यपि आज इसका कारण दूसरा है. आज मैं घोर आस्तिक हूँ. लेकिन मुझे किसी ने नहीं कहा कि तुम मूर्ती पूजा करो.

अगर आप सुखी रहना चाहते हैं तो छोटी छोटी बातों में भी सकारात्मकता ढूँढने की कोशिश कीजिये . नकारात्मकता आपको बड़ा लेखक,कवि, नेता तो बना सकती है पर सुखी नहीं . नकारात्मक भाव का व्यक्ति कभी खुश नहीं रह सकता है . आप एक बार उन औरतों से पूछ कर देखिये जिनके नाक सिन्दूर से पुते होते हैं कि ऐसा करके वे कितनी ख़ुशी महसूस करती है. उस ख़ुशी के सामने आपका ज्ञान , आपकी बौद्धिकता, आपका चातुर्य सब व्यर्थ है. उस एक पल की ख़ुशी को आप कई किताबें लिख कर भी नहीं खरीद सकते हैं.
छठ सकारात्मकता का पर्व है . आइये इस पुनीत अवसर पर अपने चारो ओर बिखरी सकारात्मकता को अपने भीतर आत्म सात कर लें एवं ईश्वर से प्रार्थना करें कि हे ईश्वर ! इस पृथ्वी पर सभी को सद्बुद्धि दे.
आप सभी को छठ पूजा की हार्दिक शुभकामनायें .
.....नीरज नीर ......
....#नीरज नीर ...... 
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Monday 16 October 2017

दिवाली में पटाखों की निरर्थकता

दीप जलाओ दीप जलाओ
आज दिवाली रे
खुशी-खुशी सब हँसते आओ
आज दिवाली रे.... 
बचपन में पढ़ी कविता की ये पंक्तियाँ आज भी मस्तिष्क के किसी कोने में बैठी है. दिवाली दीये और प्रकाश का पर्व है और प्रकाश आनंद का प्रतीक है. दीपावली का त्यौहार वातावरण को खुशियों से भर देता है. भारत के ज्यादातर त्योहारों की तरह यह त्यौहार भी कृषि एवं मौसम से जुड़ा है . धान की बालियाँ पक जाती है. नए धान की महक किसान को उमंग से भर देती है. किसान ख़ुशी से झूम रहे होते हैं. वर्षा की विदाई हो चुकी होती है एवं मौसम में गुलाबी ठंढ व्याप्त होने लगती है. ऐसे में घरों में प्रज्जवलित दीप मालाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि धरती ने रौशनी का श्रृंगार किया हो. जैसे किसी नव ब्याहता के मांग का टीका उसके सौन्दर्य को निखार देता है ठीक वैसे ही शरद ऋतू में दीपों का प्रकाश, वर्षा ऋतू के उपरांत धुली हुई धरती के सौन्दर्य में चार चाँद लगा देता है .

मान्यता के अनुसार भगवान राम चौदह वर्ष के वनवास के उपरान्त जब अयोध्या लौटे तो उनके आगमन की ख़ुशी में अयोध्या नगर के वासियों ने घी के दीये जलाये. घी के दीये जलाना का अर्थ वैसे भी ख़ुशी मानना होता है. दीप जलाना अपनी ख़ुशी को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है. नजराना फिल्म का यह गाना दिवाली की मनोहरता को कितनी सुन्दरता से अभिव्यक्त करता है :

मेले हैं चिरागों के रंगीन दिवाली है
महका हुआ गुलशन है हँसता हुआ माली है
इस रात कोई देखे धरती के नजारों को
शर्माते हैं ये दीपक आकाश के तारों को
इस रात का क्या कहना ये रात निराली है

दीवाली पर दीये जलाने का एक लाभ यह भी है कि वर्षा ऋतू के मध्य उत्पन्न तरह तरह के कीड़े मकोड़े दीये की रौशनी से आकर्षित होते हैं एवं मर जाते हैं. इसके साथ ही दीपावली जुड़े साफ़ सफाई के महत्व को तो सभी जानते ही हैं.

ऐसे में प्रश्न उत्पन्न होता है कि  दीये जलाकर आनंद उत्सव मनाने की बात तो हम सबको ज्ञात है  लेकिन ये पटाखे हमारी परंपरा में कब और कैसे प्रवेश कर गए. जैसा कि हम जानते है कि बारूद का अविष्कार भारत में नहीं हुआ एवं बारूद सर्वप्रथम मुग़ल आक्रान्ता बाबर के द्वारा भारत की भूमि पर प्रयोग किया गया. पटाखे बारूद से बनाते हैं यानी कि बारूद,  दिवाली से जुडी धार्मिक मान्यता एवं परंपरा का हिस्सा प्रारंभ से नहीं था. दिवाली में पटाखा चलाने की पहले कोई परंपरा नहीं थी. लेकिन आज दीपावली के अवसर पर इतने पटाखे फोड़े जाते हैं मानो दीपावली दीये जलाने का नहीं बल्कि पटाखे फोड़ने का पर्व है .
जब चारो तरफ दीये जल रहे हो तो उसे देखना एक आनंद दायक अनुभव होता है, जो दीये जलाता है उसके लिए भी और जो देखता है उसके लिए भी. लेकिन पटाखों के साथ ऐसा नहीं होता है. पटाखा चलाना एक राक्षसी प्रवृति है. यह पटाखा चलाने वालों को तो क्षणिक आनंद देता है परन्तु अन्य सभी को इससे परेशानी होती है. सामान्य मूक जानवर भी पटाखों के शोर एवं उससे उत्पन्न प्रदूषण से परेशान हो जाते हैं. यहाँ तक की पेड़ पौधे पर भी पटाखों से उत्पन्न प्रदूषण का प्रतिकूल असर पड़ता है . बुजुर्गों एवं बीमार व्यक्ति की यंत्रणा  की तो सहज कल्प्पना की जा सकती है .

दीपावली को लेकर आज तक जितने भी गीत लिखे गए या कवितायेँ लिखी गयीं, सभी दीयों के  जगमग प्रकाश एवं स्वादिष्ट मिठाइयों की ही बात करते हैं. आपने कभी नहीं सुना होगा कि किसी सुमधुर गीत या कविता में पटाखों की चर्चा हुई हो. क्योंकि पटाखें मानवीय सौन्दर्य अनुभूतियों एवं मानवीय संवेदनाओं को जागृत नहीं करते हैं.

पटाखों से किसी का लाभ नहीं होता है.  हम अक्सर सुनते रहते हैं कि पटाखा फैक्टरियों में बाल मजदूरों से काम लिया जाता है एवं उनका शोषण होता है. दिवाली के दिन पटाखों के कारण होने वाले प्रदूषण का स्तर दिल्ली जैसे बड़े शहरों में इतना बढ़ जाता है कि कई लोगों को सांस सम्बन्धी परेशानियाँ होने लगती है.  दिवाली की  रात में पिछले वर्ष PM 2 का स्तर 1200 को पार कर गया था जो सामान्य से बहुत अधिक है.  हम स्वच्छता की बात करते हैं. सड़क की गन्दगी तो साफ़ की जा सकती है, हवा भी कुछ दिनों में साफ़ हो सकती है पर जो प्रदूषण जनित जहरीले पदार्थ  हमारे फेफड़ों में जमा हो जाता है उसे हम किसी भी तरह से साफ़ नहीं कर सकते हैं.  इस प्रकार हम देखते हैं कि पटाखों से अनेक प्रकार के नुकसान है.  सबसे आश्चर्य की बात यह है कि इस तरह की नुक्सानदायक परंपरा हमारे पर्व का हिस्सा बन रही है.  जबकि हमारे सभी पर्व त्योहारों में शामिल प्राचीन परम्पराओं में कुछ न कुछ वैज्ञानिक आधार अवश्य देखने को मिलता है.

हमारे पर्व त्यौहार खुशियाँ बांटने के अवसर हैं. किसी को दुःख पहुंचा कर खुशियाँ मनाना, यह हमारी धर्म एवं संस्कृति का हिस्सा नहीं है. यह तो इसके विपरीत अधर्म और अपसंस्कृति है. पटाखों में किये जाने वाले खर्च को बचाकर अगर किसी गरीब के घर में मिठाई पहुंचा दी जाए या उनके लिए दीये और तेल का प्रबंध कर दिया जाए तो ऐसा करने वालों पर लक्ष्मी की अधिक कृपा होगी.
दिवाली के दिन हम माँ लक्ष्मी की पूजा भी करते हैं एवं उनसे अपने लिए धन, धान्य एवं समृद्धि की कामना करते हैं. परन्तु इतने  शोर शराबे एवं प्रदूषण  के मध्य हम क्या लक्ष्मी जी की कृपा के पात्र हो सकते हैं? आज का हमारा समाज एक जागरूक समाज है जो अपने कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक है. खास कर युवा वर्ग नए एवं स्वस्थ समाज के निर्माण हेतू अत्यंत सचेत है. ऐसे में आइये हम सब मिलकर ऐसा प्रयत्न करें कि इस धार्मिक पर्व में अनावश्यक रूप से शामिल हो गयी इस कुत्सित परम्परा रुपी राक्षस का हम अंत कर दें एवं हम सब मिलकर लक्ष्मी जी से यह प्रार्थना करें कि हे माँ ! इस देश में कोई गरीब ना रहे, कोई भूखा न रहे.
दीप जलाओ ख़ुशी मनाओ
पर हो पटाखों का खेल नहीं
एक दीया उनके भी खातिर
दीये में जिनके तेल नहीं
#नीरज नीर
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