Sunday, 12 January 2014

औरत और नदी


औरत जब करती है
अपने अस्तित्व की तलाश और 
बनाना चाहती है 
अपनी स्वतंत्र राह -
पर्वत  से बाहर 
उतरकर 
समतल मैदानों में .
उसकी यात्रा शुरू होती है 
पत्थरों के बीच से 
दुराग्रही पत्थरों को काटकर 
वह बनाती है घाटियाँ 
आगे बढ़ने के लिए 
पर्वत उसे रखना चाहता है कैद 
अपनी बलिष्ठ भुजाओं में 
पहना कर अपने अभिमान की बेड़ियाँ,
खड़े करता है,
कदम दर कदम अवरोध .
उफनती , फुफकारती , लहराती 
अवरोधों को जब मिटाती है औरत 
कहलाती है उच्छृन्खल.
औरत जब तोड़ती है तटबंध 
करती है विस्तार 
अपने पाटों का  
अपने आस पास के परिवेश को 
बना देती है उर्वरा
चारो और खिल उठता है नया जीवन 
वह बन जाती है पूजनीया 
कहलाती है गंगा ..
... नीरज कुमार नीर ..
#neeraj_kumar_neer 

चित्र गूगल से साभार 

25 comments:

  1. बहुत सुन्दर भाव की अभिव्यक्ति !
    नई पोस्ट आम आदमी !
    नई पोस्ट लघु कथा

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  2. Kripata ise bhi drkhen

    http://pragyan-vigyan.blogspot.in/2014/01/blog-post.html

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  3. कल 13/01/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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    1. धन्यवाद यशवंत जी .

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन स्वामी विवेकानन्द जी की १५० वीं जयंती - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. धन्यवाद ब्लॉग बुलेटिन ..

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  5. सुन्दर भाव-प्रवाह और सत्य का चित्रण.

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  6. अच्छे बिम्ब ... व्यक्तित्व के सुगम प्रवाह से ही धरती उपजाओ रहती है ... चाहे नदी हो या नारी ...

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  7. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,लोहड़ी कि हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  8. 25 MARCH, 2012
    को कुछ दोहे रचे थे -
    आभार आपने अच्छी तरह विषय को समझाया है-
    सादर-
    http://dcgpthravikar.blogspot.in/2012/03/blog-post_25.html


    हिमनद भैया मौज में, सोवे चादर तान |
    सरिता बहना झेलती, पग पग पर व्यवधान |

    काटे कंटक पथ कई, करे पार चट्टान ।
    गिरे पड़े आगे बढे, किस्मत से अनजान ।

    सुन्दर सरिता सँवरती, रहे सरोवर घूर ।
    चौड़ा हो हिमनद पड़ा, सरिता बहना दूर ।

    समतल पर मद्धिम हुई, खटका मन में होय ।
    दुष्ट बाँध व्यवधान से, दे सम्मान डुबोय ।

    दुर्गंधी कलुषित हृदय, नरदे करते भेंट ।
    आपस में फुस-फुस करें, करना मटियामेट ।


    इंद्र-देवता ने किया, निर्मल मन विस्तार ।
    तीक्ष्ण धार-धी से सबल, समझी धी संसार ।

    तन-मन निर्मल कर गए, ब्रह्म-पुत्र उदगार।
    लेकिन लेकर बह गया, गुमी समंदर धार ।

    भूल गई पहचान वो, खोयी सरस स्वभाव।
    तड़पन बढती ही गई, नमक नमक हर घाव ।

    छूट जनक का घर बही, झेली क्रूर निगाह ।
    स्वाहा परहित हो गई, पूर्ण हुई न चाह ।।

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    1. आपके दोहे बहुत उत्कृष्ट हैं आदरणीय.. बिलकुल नदी की तरह प्रवाहमयी एवं स्त्री की तरह कोमल .. सुन्दर दोहे .. आभार ,,

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  9. http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/01/blog-post_13.html

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    1. आभार आदरणीया आपका ..

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  10. WAAAHH ATI SUNDAR ..NARI CHARITRA KA KHUBSURAT BIMB UBHAR KAR AYA HAI BADHAYI

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  11. पुनीत भाव ...सुंदर रचना ....बधाई एवं शुभकामनायें ।

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  12. भावपूर्ण कविता के लिए आभार

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  13. बहुत सुन्दर चित्रांकन ..देखते ही बनता है ...
    बहुत सुन्दर कृति ...

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  14. बहुत सुंदर। नदी के बिंब से नारी की जीवन गाथा लिख दी आपने तो और रविकर जी की प्रस्तुति भी उसी तरह की, दोनों अति सुंदर।

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आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मूल्यवान है. आपकी टिप्पणी के लिए आपका बहुत आभार.