Wednesday, 2 December 2015

मुर्दों में असहिष्णुता नहीं होती

मैं जिंदगी बांटता  हूँ
पर इसके तलबगार
मुर्दे नहीं हो सकते
लहलहाते हरियाये
हँसते खिलखिलाते पौधे
जिनमे फल की उम्मीद है
जल उन्हीं में डालूँगा
सूख चुके /सड़ चुके  पौधों में
जल व्यर्थ ही जाएगा
मैं ढूँढता हू
आनंद और ऊर्जा की खोज में रत
स्वाभिमानी
स्थायी जड़ता से ऊबे
परिवर्तन की चाह वाले
युवा सिपाही।
हजार वर्ष की परतंत्रता ने
जिनके लहू  को
कर दिया है नीला
खराब हो चुंका है जिनका जीन
उन्हें जाना होगा
पीछे नेपथ्य में
जहां अकूत शांति है
उनकी जगह वहीं हैं
मुर्दों में असहिष्णुता नहीं होती
धर्म, राष्ट्र, न्याय से हीन
ये वैसे प्रेत हैं
जो कभी कभी
धर लेते हैं कमजोर मस्तिष्क युवाओं को
............ नीरज कुमार नीर
#neeraj_kumar_neer 

5 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 3 - 12 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2179 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. खुबसूरत प्रस्तुति

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  3. बहुत सुंदर और सटीक प्रस्तुति ।

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  4. इस रचना के लिए हमारा नमन स्वीकार करें

    एक बार हमारे ब्लॉग पुरानीबस्ती पर भी आकर हमें कृतार्थ करें _/\_

    http://puraneebastee.blogspot.in/2015/03/pedo-ki-jaat.html

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  5. सुन्दर पंक्तियाँ

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आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मूल्यवान है. आपकी टिप्पणी के लिए आपका बहुत आभार.