Monday 16 October 2017

दिवाली में पटाखों की निरर्थकता

दीप जलाओ दीप जलाओ
आज दिवाली रे
खुशी-खुशी सब हँसते आओ
आज दिवाली रे.... 
बचपन में पढ़ी कविता की ये पंक्तियाँ आज भी मस्तिष्क के किसी कोने में बैठी है. दिवाली दीये और प्रकाश का पर्व है और प्रकाश आनंद का प्रतीक है. दीपावली का त्यौहार वातावरण को खुशियों से भर देता है. भारत के ज्यादातर त्योहारों की तरह यह त्यौहार भी कृषि एवं मौसम से जुड़ा है . धान की बालियाँ पक जाती है. नए धान की महक किसान को उमंग से भर देती है. किसान ख़ुशी से झूम रहे होते हैं. वर्षा की विदाई हो चुकी होती है एवं मौसम में गुलाबी ठंढ व्याप्त होने लगती है. ऐसे में घरों में प्रज्जवलित दीप मालाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि धरती ने रौशनी का श्रृंगार किया हो. जैसे किसी नव ब्याहता के मांग का टीका उसके सौन्दर्य को निखार देता है ठीक वैसे ही शरद ऋतू में दीपों का प्रकाश, वर्षा ऋतू के उपरांत धुली हुई धरती के सौन्दर्य में चार चाँद लगा देता है .

मान्यता के अनुसार भगवान राम चौदह वर्ष के वनवास के उपरान्त जब अयोध्या लौटे तो उनके आगमन की ख़ुशी में अयोध्या नगर के वासियों ने घी के दीये जलाये. घी के दीये जलाना का अर्थ वैसे भी ख़ुशी मानना होता है. दीप जलाना अपनी ख़ुशी को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है. नजराना फिल्म का यह गाना दिवाली की मनोहरता को कितनी सुन्दरता से अभिव्यक्त करता है :

मेले हैं चिरागों के रंगीन दिवाली है
महका हुआ गुलशन है हँसता हुआ माली है
इस रात कोई देखे धरती के नजारों को
शर्माते हैं ये दीपक आकाश के तारों को
इस रात का क्या कहना ये रात निराली है

दीवाली पर दीये जलाने का एक लाभ यह भी है कि वर्षा ऋतू के मध्य उत्पन्न तरह तरह के कीड़े मकोड़े दीये की रौशनी से आकर्षित होते हैं एवं मर जाते हैं. इसके साथ ही दीपावली जुड़े साफ़ सफाई के महत्व को तो सभी जानते ही हैं.

ऐसे में प्रश्न उत्पन्न होता है कि  दीये जलाकर आनंद उत्सव मनाने की बात तो हम सबको ज्ञात है  लेकिन ये पटाखे हमारी परंपरा में कब और कैसे प्रवेश कर गए. जैसा कि हम जानते है कि बारूद का अविष्कार भारत में नहीं हुआ एवं बारूद सर्वप्रथम मुग़ल आक्रान्ता बाबर के द्वारा भारत की भूमि पर प्रयोग किया गया. पटाखे बारूद से बनाते हैं यानी कि बारूद,  दिवाली से जुडी धार्मिक मान्यता एवं परंपरा का हिस्सा प्रारंभ से नहीं था. दिवाली में पटाखा चलाने की पहले कोई परंपरा नहीं थी. लेकिन आज दीपावली के अवसर पर इतने पटाखे फोड़े जाते हैं मानो दीपावली दीये जलाने का नहीं बल्कि पटाखे फोड़ने का पर्व है .
जब चारो तरफ दीये जल रहे हो तो उसे देखना एक आनंद दायक अनुभव होता है, जो दीये जलाता है उसके लिए भी और जो देखता है उसके लिए भी. लेकिन पटाखों के साथ ऐसा नहीं होता है. पटाखा चलाना एक राक्षसी प्रवृति है. यह पटाखा चलाने वालों को तो क्षणिक आनंद देता है परन्तु अन्य सभी को इससे परेशानी होती है. सामान्य मूक जानवर भी पटाखों के शोर एवं उससे उत्पन्न प्रदूषण से परेशान हो जाते हैं. यहाँ तक की पेड़ पौधे पर भी पटाखों से उत्पन्न प्रदूषण का प्रतिकूल असर पड़ता है . बुजुर्गों एवं बीमार व्यक्ति की यंत्रणा  की तो सहज कल्प्पना की जा सकती है .

दीपावली को लेकर आज तक जितने भी गीत लिखे गए या कवितायेँ लिखी गयीं, सभी दीयों के  जगमग प्रकाश एवं स्वादिष्ट मिठाइयों की ही बात करते हैं. आपने कभी नहीं सुना होगा कि किसी सुमधुर गीत या कविता में पटाखों की चर्चा हुई हो. क्योंकि पटाखें मानवीय सौन्दर्य अनुभूतियों एवं मानवीय संवेदनाओं को जागृत नहीं करते हैं.

पटाखों से किसी का लाभ नहीं होता है.  हम अक्सर सुनते रहते हैं कि पटाखा फैक्टरियों में बाल मजदूरों से काम लिया जाता है एवं उनका शोषण होता है. दिवाली के दिन पटाखों के कारण होने वाले प्रदूषण का स्तर दिल्ली जैसे बड़े शहरों में इतना बढ़ जाता है कि कई लोगों को सांस सम्बन्धी परेशानियाँ होने लगती है.  दिवाली की  रात में पिछले वर्ष PM 2 का स्तर 1200 को पार कर गया था जो सामान्य से बहुत अधिक है.  हम स्वच्छता की बात करते हैं. सड़क की गन्दगी तो साफ़ की जा सकती है, हवा भी कुछ दिनों में साफ़ हो सकती है पर जो प्रदूषण जनित जहरीले पदार्थ  हमारे फेफड़ों में जमा हो जाता है उसे हम किसी भी तरह से साफ़ नहीं कर सकते हैं.  इस प्रकार हम देखते हैं कि पटाखों से अनेक प्रकार के नुकसान है.  सबसे आश्चर्य की बात यह है कि इस तरह की नुक्सानदायक परंपरा हमारे पर्व का हिस्सा बन रही है.  जबकि हमारे सभी पर्व त्योहारों में शामिल प्राचीन परम्पराओं में कुछ न कुछ वैज्ञानिक आधार अवश्य देखने को मिलता है.

हमारे पर्व त्यौहार खुशियाँ बांटने के अवसर हैं. किसी को दुःख पहुंचा कर खुशियाँ मनाना, यह हमारी धर्म एवं संस्कृति का हिस्सा नहीं है. यह तो इसके विपरीत अधर्म और अपसंस्कृति है. पटाखों में किये जाने वाले खर्च को बचाकर अगर किसी गरीब के घर में मिठाई पहुंचा दी जाए या उनके लिए दीये और तेल का प्रबंध कर दिया जाए तो ऐसा करने वालों पर लक्ष्मी की अधिक कृपा होगी.
दिवाली के दिन हम माँ लक्ष्मी की पूजा भी करते हैं एवं उनसे अपने लिए धन, धान्य एवं समृद्धि की कामना करते हैं. परन्तु इतने  शोर शराबे एवं प्रदूषण  के मध्य हम क्या लक्ष्मी जी की कृपा के पात्र हो सकते हैं? आज का हमारा समाज एक जागरूक समाज है जो अपने कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक है. खास कर युवा वर्ग नए एवं स्वस्थ समाज के निर्माण हेतू अत्यंत सचेत है. ऐसे में आइये हम सब मिलकर ऐसा प्रयत्न करें कि इस धार्मिक पर्व में अनावश्यक रूप से शामिल हो गयी इस कुत्सित परम्परा रुपी राक्षस का हम अंत कर दें एवं हम सब मिलकर लक्ष्मी जी से यह प्रार्थना करें कि हे माँ ! इस देश में कोई गरीब ना रहे, कोई भूखा न रहे.
दीप जलाओ ख़ुशी मनाओ
पर हो पटाखों का खेल नहीं
एक दीया उनके भी खातिर
दीये में जिनके तेल नहीं
#नीरज नीर
#दिवाली #पटाखे #त्यौहार #diwali #festival #firecrackers #ban #deepawali  

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (17-10-2017) को भावानुवाद (पाब्लो नेरुदा की नोबल प्राइज प्राप्त कविता); चर्चा मंच 2760 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन धनतेरस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मूल्यवान है. आपकी टिप्पणी के लिए आपका बहुत आभार.

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