'परिकथा' के सितंबर - अक्तूबर 2014 अंक में प्रकाशित
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मोबाइल टावर के आने के बाद से कौओं की संख्या में चिंताजनक गिरावट आई है, उसी ओर इंगित करती मेरी नई कविता पढ़ें और अपने विचार जरूर लिखें ....
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अब नहीं आते कौए
चले गए.
कौए की काँव काँव से
अतिथि के आगमन का अनुमान
अब नहीं लगाता कोई.
आँगन भी तो नहीं रहे,
जहाँ बैठ कर बऊआ
कटोरी में दूध रोटी खाता था.
कौआ भी वहीँ मंडराता था,
अम्मा जी खिसिया कर फटकारती.
दादी कहती ये काग भुसुंडी हैं,
कौए के घर कौन सी खेती होती है,
और एक टुकड़ा रोटी कौए की ओर उछाल देती,
कौआ भी नृत्य की मुद्रा दिखाता हुआ
काँव काँव करता रोटी का टुकड़ा उठाता
और उड़ जाता.
अब नहीं आते कौए चले गए.
हाँ, कोयल आती है अभी भी
कभी कभी.
सुनाई पड़ती है उसकी कूक
वसंत में .
कोयल तो आप्रवासी है
इधर के बदलते परिवेश से
अभी नहीं हुई है परिचित
लेकिन कब तक आएगी कोयल?
आखिर कौन सेयेगा उसेक अंडे?
कहाँ छोड़ कर जायेगी वह अपने अंडे?
मोबाइल के टावर पर?
अब नहीं आते कौए चले गए
अतिथि भी तो अब नहीं आते
बिना बताये.
सभी के पास अब मोबाइल है.
कौआ मशीन बनकर
समा गया हमारी जेबों में.
कभी भी बज उठता ,
मानो कौए की आत्मा चीत्कार कर रही हो
काँव काँव ..
नीरज कुमार नीर .
#NEERAJ_KUMAR_NEER
चित्र गूगल से साभार
एक नई सोच ..एक नया बिम्ब ...अच्छा लगा
ReplyDeleteसार्थक रचना .. सच में कौओं का कम होना दुर्भाग्य पूर्ण है ...
ReplyDeleteपर्यावरण को चेताती सुन्दर रचना ...
तर्कसंगत सार्थक रचना। पक्षियों का इस तरह विलुप्त होना वाकई चिन्ताजनक है !!सादर धन्यवाद।।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ : BidVertiser ( बिडवरटाइजर ) से संभव है हिन्दी ब्लॉग और वेबसाइट से कमाई
विश्व स्वास्थ्य दिवस ( World Health Day )
सभी के पास अब मोबाइल है.
ReplyDeleteकौआ मशीन बनकर
समा गया हमारी जेबों में.
कभी भी बज उठता ,
मानो कौए की आत्मा चीत्कार कर रही हो
काँव काँव
लोहे और इस्पात, सीमेंट और कॉन्क्रीट के जंगलों में पक्षियों के आगमन और उनके नैसर्गिक क्रिया कलापों की अपेक्षा करना अब अर्थहीन होता जा रहा है ! प्रकृति से जितनी हम छेड़छाड़ करेंगे और पेड़ पौधों को काटते चले जायेंगे हमें ऐसे सदमों को झेलने के लिये तैयार रहना पडेगा ! सार्थक सृजन !
ReplyDeleteनयाब लेखनी वही जो अनछुए पहलु पर नजर डाले। और आपकी इस अभिव्यक्ती वही बात कही ।
ReplyDeleteबहुत खूब भाई
सुंदर !
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति को ब्लॉग बुलेटिन की कल कि बुलेटिन राहुल सांकृत्यायन जी का जन्म दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबेहतरीन सार्थक कविता का सृजन, कौओं में कमी देखी जा रही है इस समय। सादर आभार आपका।
ReplyDeleteकल 11 /04/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
आभार आपका ..
Deleteachchi kavita hai neeraj ji dheere dheere hum sab chle jayenge
ReplyDeleteबहुत खूब बहुत ही लाज़वाब अभिव्यक्ति आपकी। बधाई
ReplyDeleteएक नज़र :- हालात-ए-बयाँ: ''हम वीर धीर''
बहुत खूब , निरीह पक्षियों पर अब इंसान का ध्यान नहीं जाता !!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना , नीरज भाई धन्यवाद !
ReplyDeleteनवीन प्रकाशन -: मजेदार व काम की ८ एंड्राइड एप्लिकेशन डाउनलोड करें ! -{ 8 Free Android Apps Download ! }
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सच कहा आपने बड़ी चिंतनीय स्थिति है। . हमें कभी कभार कौवों के दर्शन हो ही जाते है लेकिन मेहमान के आगमन की सुचना जैसे गांव में दे जाते है वह शहर में नहीं
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रेरक रचना
बहुत सुंदर रचना.कंक्रीट के घने जंगलों में पक्षियों की आवाज दब गई है.हर सभ्यता को विकास की कुछ कीमत चुकानी ही पड़ती है.
ReplyDeleteइसी विषय पर मैंने पिछले साल एक पोस्ट लिखा था 'महल पर कागा बोला है री'.
बहुत सही विषय उठाया आपने .. मोबाइल टावर से निकलने वाला rediation सचमुच चिंता का विषय है ..शुभकामनाये
ReplyDeleteबिश्व में पर्यावरण को स्वच्छ रखने में में कौओ और गिद्धों का हे हाथ है यदि ये विलुप्त हो गए तो क्या हो जाएगा इसकी तो कल्पना ही नहीं की जा सकती | कौओंजैसा शोर हम मोबाईल प्र या टीवी पर भी सुना सकते है लेकिन विश्व को स्वच्छ रखने के उनके कार्य को कोइ नहीँ कर सकता | उनके इसी कार्य के लिए शास्त्रों में काग भाग रखने का प्रावधान है | इसी चिन्ता को व्यक्त करती आपकी यह सुंदर प्रस्तुति है| साधुवाद|
ReplyDeleteआपके संवेदनशील ह्रदय ने काग-व्यथा को सुना है और बखूबी चित्रित किया है. पिछली बार मैं गाँव गया था तो ऐसा लगा जैसे गोरैया की संख्या भी काफी कम हो गयी थी.
ReplyDeleteVery beautiful poem, reminding our missed link with crows. Congrats. Regards.
ReplyDeleteनीरज जी, सुंदर अभिव्यक्ति! आपकी यह रचना जिस मुद्दे को उठा रही है, शायद वह हर एक व्यक्ति को कचोटता है, आज कल गोरैया की चहचाहट भी कहाँ सुन पाते हैं हम। समय और परिवेश की मांग है यह कविता। निश्चय ही पाठकों को आकर्षित करेगी - डॉ प्रेम लता चसवाल 'प्रेम पुष्प' एवं पुष्प राज चसवाल: संपादक द्वय: अनहद कृति (www.anhadkriti.com)
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