Wednesday, 9 April 2014

कौआ , मोबाइल और काँव काँव

'परिकथा' के सितंबर - अक्तूबर 2014 अंक में प्रकाशित 
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मोबाइल टावर के आने के बाद से कौओं की संख्या में चिंताजनक गिरावट आई है, उसी  ओर  इंगित करती मेरी नई कविता पढ़ें और अपने विचार जरूर लिखें ....
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अब नहीं आते कौए
चले गए.
कौए की काँव काँव से
अतिथि के आगमन का अनुमान
अब नहीं लगाता कोई.
आँगन भी तो नहीं रहे,
जहाँ बैठ कर बऊआ
कटोरी में दूध रोटी खाता था.
कौआ भी वहीँ मंडराता था,
अम्मा जी खिसिया कर फटकारती.
दादी कहती ये काग भुसुंडी हैं,
कौए के घर कौन सी खेती होती है,
और एक टुकड़ा रोटी कौए की ओर उछाल देती,
कौआ भी नृत्य की मुद्रा दिखाता हुआ
काँव काँव करता रोटी का टुकड़ा उठाता
और  उड़ जाता.
अब नहीं आते कौए चले गए.
हाँ,  कोयल आती है अभी भी
कभी कभी.
सुनाई पड़ती है उसकी कूक
वसंत में .
कोयल तो आप्रवासी है
इधर के बदलते परिवेश से
अभी नहीं हुई है परिचित
लेकिन कब तक आएगी कोयल?
आखिर कौन सेयेगा उसेक अंडे?
कहाँ छोड़ कर जायेगी वह अपने अंडे?
मोबाइल के टावर पर?
अब नहीं आते  कौए चले गए
अतिथि भी तो अब नहीं आते
बिना बताये.
सभी के पास अब मोबाइल है.
कौआ मशीन बनकर
समा गया हमारी जेबों में.
कभी भी बज उठता ,
मानो कौए की आत्मा चीत्कार कर रही हो
काँव काँव ..

नीरज कुमार नीर .
 #NEERAJ_KUMAR_NEER 
चित्र गूगल से साभार 

22 comments:

  1. एक नई सोच ..एक नया बिम्ब ...अच्छा लगा

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  2. सार्थक रचना .. सच में कौओं का कम होना दुर्भाग्य पूर्ण है ...
    पर्यावरण को चेताती सुन्दर रचना ...

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  3. तर्कसंगत सार्थक रचना। पक्षियों का इस तरह विलुप्त होना वाकई चिन्ताजनक है !!सादर धन्यवाद।।

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  4. सभी के पास अब मोबाइल है.
    कौआ मशीन बनकर
    समा गया हमारी जेबों में.
    कभी भी बज उठता ,
    मानो कौए की आत्मा चीत्कार कर रही हो
    काँव काँव

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  5. लोहे और इस्पात, सीमेंट और कॉन्क्रीट के जंगलों में पक्षियों के आगमन और उनके नैसर्गिक क्रिया कलापों की अपेक्षा करना अब अर्थहीन होता जा रहा है ! प्रकृति से जितनी हम छेड़छाड़ करेंगे और पेड़ पौधों को काटते चले जायेंगे हमें ऐसे सदमों को झेलने के लिये तैयार रहना पडेगा ! सार्थक सृजन !

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  6. नयाब लेखनी वही जो अनछुए पहलु पर नजर डाले। और आपकी इस अभिव्यक्ती वही बात कही ।

    बहुत खूब भाई

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  7. आपकी इस प्रस्तुति को ब्लॉग बुलेटिन की कल कि बुलेटिन राहुल सांकृत्यायन जी का जन्म दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  8. बेहतरीन सार्थक कविता का सृजन, कौओं में कमी देखी जा रही है इस समय। सादर आभार आपका।

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  9. कल 11 /04/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  10. बहुत खूब बहुत ही लाज़वाब अभिव्यक्ति आपकी। बधाई

    एक नज़र :- हालात-ए-बयाँ: ''हम वीर धीर''

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  11. बहुत खूब , निरीह पक्षियों पर अब इंसान का ध्यान नहीं जाता !!

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  12. सच कहा आपने बड़ी चिंतनीय स्थिति है। . हमें कभी कभार कौवों के दर्शन हो ही जाते है लेकिन मेहमान के आगमन की सुचना जैसे गांव में दे जाते है वह शहर में नहीं
    बहुत बढ़िया प्रेरक रचना

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  13. बहुत सुंदर रचना.कंक्रीट के घने जंगलों में पक्षियों की आवाज दब गई है.हर सभ्यता को विकास की कुछ कीमत चुकानी ही पड़ती है.
    इसी विषय पर मैंने पिछले साल एक पोस्ट लिखा था 'महल पर कागा बोला है री'.

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  14. बहुत सही विषय उठाया आपने .. मोबाइल टावर से निकलने वाला rediation सचमुच चिंता का विषय है ..शुभकामनाये

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  15. बिश्व में पर्यावरण को स्वच्छ रखने में में कौओ और गिद्धों का हे हाथ है यदि ये विलुप्त हो गए तो क्या हो जाएगा इसकी तो कल्पना ही नहीं की जा सकती | कौओंजैसा शोर हम मोबाईल प्र या टीवी पर भी सुना सकते है लेकिन विश्व को स्वच्छ रखने के उनके कार्य को कोइ नहीँ कर सकता | उनके इसी कार्य के लिए शास्त्रों में काग भाग रखने का प्रावधान है | इसी चिन्ता को व्यक्त करती आपकी यह सुंदर प्रस्तुति है| साधुवाद|

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  16. आपके संवेदनशील ह्रदय ने काग-व्यथा को सुना है और बखूबी चित्रित किया है. पिछली बार मैं गाँव गया था तो ऐसा लगा जैसे गोरैया की संख्या भी काफी कम हो गयी थी.

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  17. Very beautiful poem, reminding our missed link with crows. Congrats. Regards.

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  18. नीरज जी, सुंदर अभिव्यक्ति! आपकी यह रचना जिस मुद्दे को उठा रही है, शायद वह हर एक व्यक्ति को कचोटता है, आज कल गोरैया की चहचाहट भी कहाँ सुन पाते हैं हम। समय और परिवेश की मांग है यह कविता। निश्चय ही पाठकों को आकर्षित करेगी - डॉ प्रेम लता चसवाल 'प्रेम पुष्प' एवं पुष्प राज चसवाल: संपादक द्वय: अनहद कृति (www.anhadkriti.com)

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आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मूल्यवान है. आपकी टिप्पणी के लिए आपका बहुत आभार.

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