Thursday, 20 June 2013

नदी पागल हो गयी है

       
       जब सम्मान के साथ होता है खिलवाड़,
आबरू होती है बार बार
तार तार.
बचाव की नहीं होती
कोई उम्मीद,
सीमा की जाती है
अतिक्रमित लगातार.
मर्यादा का किया जाता है,
खुला उल्लंघन.
जब संकट होता है अस्तित्व का,
निस्सहाय, बेबस, निरावलंब
स्त्री हो जाती है पागल.
मिटा देना चाहती है
आतातायियों के जुल्म को,
कर देना चाहती है उसका समूल नाश.
नदी स्त्री है,
नदी पागल हो गयी है..

........नीरज कुमार ‘नीर’

(चित्र गूगल से साभार)

19 comments:

  1. सच सौ फीसदी. और वो कोसी जैसी हो तो फिर मत पूछिए.

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  2. नदी पागल हो गयी .................
    सटीक रचना !!

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  3. बहुत सुन्दर भाव की अभिव्यक्ति
    latest post परिणय की ४0 वीं वर्षगाँठ !

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  4. बहुत प्रभावी ... समय राजते चेतना होगा इस समाज को ... नारी मन और नदी के प्रवाह को समझना होगा ...

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  5. बहुत ही सार्थक और प्रभावी प्रस्तुती, अभी भी समय है हमे सजग होकर नारी को सम्मान देना ही होगा नही तो एक दिन प्रलय तो आएगी ही।

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  6. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन गूगल की नई योजना "प्रोजेक्ट लून"....ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  7. जब सारी हदें पार हो जाती हैं तो यही होता है ... प्रभावी रचना

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  8. सब बंध तोड़ बह निकली वह..

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  9. बहुत ही प्रभावी रचना ……….विचारोत्तेजक

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  10. बहुत ही प्रभावी रचना …….विचारोत्तेजक

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  11. सुन्दर चित्रण...उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

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  12. सब इंसान की करतूत है , बहुत कुछ सोचने पे विवश करती सार्थक रचना

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  13. बहुत गुमान था,नदियों को बांधते, मानव
    केदार ऐ खौफ में ही, उम्र, गुज़र जायेगी !

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  14. Sad, but true. Man has alwayed played with nature terming it as development. When nature plays with man, we call it calamity.

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  15. सही कहा आपने - द्रवित अस्मिता की उफान >> http://corakagaz.blogspot.in/2013/06/pralay-plavan.html

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आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मूल्यवान है. आपकी टिप्पणी के लिए आपका बहुत आभार.