'परिकथा' के सितंबर-अक्तूबर 2014 के अंक में प्रकाशित
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इस कविता के पूर्व थोड़ी सी प्रस्तावना मैं आवश्यक समझता हूँ. झारखंड के चाईबासा में सारंडा का जंगल एशिया का सबसे बड़ा साल (सखुआ) का जंगल है , बहुत घना . यहाँ पलाश के वृक्ष से जब पुष्प धरती पर गिरते हैं तो पूरी धरती सुन्दर लाल कालीन सी लगती है . इस सारंडा में लौह अयस्क का बहुत बड़ा भण्डार है , जिसका दोहन येन केन प्राकारेण करने की चेष्टा की जा रही है .. इसी सन्दर्भ में है मेरी यह कविता :
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इस कविता के पूर्व थोड़ी सी प्रस्तावना मैं आवश्यक समझता हूँ. झारखंड के चाईबासा में सारंडा का जंगल एशिया का सबसे बड़ा साल (सखुआ) का जंगल है , बहुत घना . यहाँ पलाश के वृक्ष से जब पुष्प धरती पर गिरते हैं तो पूरी धरती सुन्दर लाल कालीन सी लगती है . इस सारंडा में लौह अयस्क का बहुत बड़ा भण्डार है , जिसका दोहन येन केन प्राकारेण करने की चेष्टा की जा रही है .. इसी सन्दर्भ में है मेरी यह कविता :
सारंडा के घने जंगलों में
जहाँ सूरज भी आता है
शरमाते हुए,
सखुआ वृक्ष के घने पत्रों ,
लताओं में छुपता छुपाता.
जहाँ प्रकृति बिछाती है टेसू, मानो
धरती पर बिछा हो लाल कालीन
विशिष्ट आगत के स्वागत में.
वहीँ, बरगद के कटोर में
हरियल ने दिए है
उम्मीद के अंडे .
कटोर के अन्दर है हलचल
चूजे सीख रहे हैं पंख फडफडाना.
वे भी उड़ेंगे
नापेंगे गगन का विस्तार .
स्वतंत्रता की गुनगुनी धुप में
बेलौस उड़ने का
अपना ही आनंद है ..
लेकिन पड़ती है खलल,
एक दैत्याकार सूअर को
खानी है बरगद की जड़.
वह बनना चाहता है
और मोटा , और बड़ा
वह खोद डालता है बरगद की जड़ को
उलट देता है दरख्त.
जंगल के क़ानून में हरियल
हासिये पर है .
वह करता है प्रतिरोध,
अपने चूजों को
बचाने का असफल प्रयास.
लेकिन रहता है विफल.
उजड़े हुए दरख़्त के साथ ही
समाप्त हो जाती है
हरियल और उसके चूजों की
जीवन गाथा.
अंत होता है एक सभ्यता का.
पलाश के फूलों का रंग
पड़ गया है काला .
रक्त सुख कर
काला हो जाता है .
अब कोई हरियल
सारंडा में नहीं देगी अंडे ..
... नीरज कुमार नीर
#neeraj_kumar_neer
चित्र गूगल से साभार
#neeraj_kumar_neer
चित्र गूगल से साभार
प्रकृति का शोषण दुर्भाग्य पूर्ण है १
ReplyDeleteलेटेस्ट पोस्ट कुछ मुक्तक !
बहुत गहरी संवेदनशील रचना ... प्राकृति को खिलौना बना के रक्खा है मनुष्य ने ...
ReplyDeleteबहुत सटीक चित्रण .... सारंडा के जंगल की झलक देखि है और सच कहूँ तो प्रकृति का अनोखा रूप बस्ता है वहाँ । उनके नष्ट होना वो क्षति होगी जिसे पूरा नहीं किया जा सकेगा।
ReplyDeleteरचना समसामयिक होने के अलावा संवेदनशीलता भी दर्शाती है
बहुत खूब
लौह की खदाने भी लाल होती है, सुन्दर और सशक्त कविता।
ReplyDeleteprakriti ka ye sundar roop kahin kho na jaaye .....sundar abhiwayakti ...
ReplyDeleteस्वम् से लेकर प्राकृतिक तक सुन्दर छटा बिखेरती हुई आपकी बेहतरीन शाब्दिक प्रस्तुति
ReplyDeleteएक नज़र ''विरह की आग ऐसी है''
बहुत सही विषय चुना है और लिखा भी बहुत गहराई से। प्राकृतिक सौंदर्य तो विलुप्त होगा ही।
ReplyDeleteमार्मिक रचना ! मानव समाज और प्रकृति दोनों ही जगह निरीह और बेबस का शोषण हो रहा है ! सटीक बिम्ब के साथ सार्थक सृजन के लिये बधाई स्वीकार करें !
ReplyDeleteawasome neeraj ji..
ReplyDeleteबहुत सुंदर एवं सार्थक.प्रकृति का दोहन आने वाले कल के लिए शुभ नहीं है.
ReplyDeleteनई पोस्ट : सिनेमा,सांप और भ्रांतियां
आप सबका हार्दिक आभार ..
ReplyDeleteप्रकृति प्रेम से ओतप्रोत, सुंदर रचना.
ReplyDeleteसच कहती पंक्तियाँ .
ReplyDeleteRecent Post लेखन तो जिन्हे विरासत में मिला है ऐसी बहुमुखी प्रतिभा की धनी है - साधना वैध