Saturday 12 May 2018

कौने चोरवा नगरिया लूटले हो रामा


वह  चालीस के आस पास की रही होगी।  रंग सांवला पर आकर्षक गठा हुआ शरीर। मांसल शरीर सहज ही किसी को आकर्षित कर सकता था। सहज रूप से मुँहफट “रमेशर वाली”  का असली नाम तो किसी को पता नहीं था पर उसके पति का नाम रमेशर होने के कारण जब से गाँव में ब्याह कर आई थी सबके के लिए रमेशर वाली ही थी।
 यह विडम्बना ही है कि गांव में ब्याह कर आने के बाद स्त्री का कोई अपना नाम नहीं रह जाता है. यह  दरअसल स्त्री से उसकी पहचान छीन लेने की पुरुष सत्ता के द्वारा रची गयी एक सामाजिक साजिश ही है.  जिसका कोई नाम ही नहीं होगा उसकी पहचान कैसी? वह सदा सदा अपने पति के नाम से जानी जाती रहेगी एवं पराश्रित ही रहेगी. 
रमेशर वाली बरसात के बादल सी थी अलमस्त घूमती फिरती.  किसी को मदद चाहिए रमेशर वाली हाजिर.  सर्दी, गर्मी, बरसात हमेशा जब किसी को काम पड़ जाए, रमेशर वाली याद कर ली जाती. रमेशर वाली ने भी कभी किसी को निराश नहीं किया. किसी की बेटी की शादी में गीत गाना हो या किसी के घर में बरी, तिलौरी बनाना हो, रमेशर वाली सबसे आगे रहती और इसीलिए वह गाँव भर की औरतों की  चहेती थी. किसी के घर बच्चा पैदा हो तो सोहर गाने के लिए रमेशर वाली को बुला लिया जाता. रमेशर वाली बिना माइक के ही इतने ऊँचे सुर में गाती कि मुहल्ले भर को उसका गाना सुनाई देता .
 ऐसा नहीं है कि वह सिर्फ गाँव की औरतों की ही चहेती थी, चहेती तो वह गाँव के पुरुषों की भी थी.  गांव के पुरुष भी उसको देख कर लम्बी सांसे भरने लगते. हालाँकि जब कभी किसी ने उससे कोई मज़ाक कर दिया तो वह शरमा कर भागती नहीं थी बल्कि पलट कर ऐसा जवाब देती कि मजाक करने वाला दूबारा मजाक करने की हिम्मत ना करे. लेकिन गाँव के पुरुष भी गाँव की सामाजिक मर्यादा को समझते थे एवं हँसी-मज़ाक की लक्ष्मण रेखा का कभी किसी ने उल्लंघन नहीं किया.
उसका पति रमेशर कलकत्ता में कमाता था। शायद टैक्सी चलाता था। गाँव में माँ और  बेटा ही रहते थे। बेटा सुरेन्द्र छोटी उम्र से कमाने कजाने में लग गया था। वह एक फेरी वाले के साथ घूम घूम कर कपड़ा बेचता था। इस प्रकार सुरेन्द्र जब सुबह सुबह फेरी पर निकल जाता तो दिन भर रमेशर वाली को करने के लिए कोई अपना काम नहीं रहता। सुबह सबेरे सुरेन्द्र के लिए नाश्ता तैयार करती तो अपने लिए दोपहर हेतू चार रोटियाँ अतिरिक्त बना लेती। उसके बाद पूरे दिन उसे अपने घर में कोई काम नहीं रहता। कभी मुफ्त में इसका धान फटक देती तो कभी उसका गेंहू चुन कर साफ कर देती, लेकिन  पूरे समय उसकी बकर-बकर चालू रहती ...... हमेशा हँसती खिलखिलाती रमेशर वाली, सबसे मज़ाक करती रहती । हमेशा जिंदा दिल।
सालों भर उसकी यही दिनचर्या रहती. कभी अपने मायके भी जाती तो एक दो दिन में ही लौट आती. ना उसके बिना गाँव की महिलाओं का जी लगता था और ना गांव के बिना उसका जी कहीं लगता था.
रमेशर वाली का घर मिट्टी का बना था. वह अपने घर को बहुत साफ़ सुथरा रखती थी . साफ सुथरा चिकना घर। गोबर से लीपा ओसारा।  दिन में उसके घर के दरवाजे पर हमेशा ही ताला लटका रहता.  इसका कारण शायद यह था कि अहले सुबह नाश्ता बनाकर खा लेने के बाद उसे घर में कोई काम बचता नहीं था । उसके बाद पूरे गाँव की सेवा टहल में लगी रहती।
 कभी कभी उसका पति गाँव आता था.  गाँव में रहने के दौरान वह अक्सर  खेतों में बकरियाँ चराता.  वह काला रंग का एक दुबला पतला आदमी था एवं उसका पेट धंसा हुआ था. देखने में वह अपनी पत्नी से बड़ा एवं बूढ़ा लगता था। एक नीली रंग की लूँगी एवं सफ़ेद गंजी पहने वह दिन भर कभी इस खेत तो कभी उस खेत में बकरियों को घुमाता रहता। अपनी बकरियों को खाली खेत के बीचो बीच लम्बी रस्सी से बांध कर वह निश्चिन्त होकर चुपचाप एक किनारे बैठा रेडियो  सुनता रहता.  बकरियां गोल गोल घूम कर पूरे खेत का घास चरती रहती. गर्मियों में वह अक्सर छाता लगा कर खेत की मेड़ पर बैठता था। कभी उसे अपनी पत्नी के साथ घूमते फिरते नहीं देखा गया था। गाँव में वैसे भी कौन पति अपनी पत्नी को साथ लिए घूमता है? पर बाज़ार एवं चिकित्सा आदि की जरूरतों के लिए भी कभी रमेशर वाली एवं उसके पति को कहीं साथ में आते जाते नहीं देखा गया.

एक बार होली का अवसर था। गर्मी अपनी तरुणाई में प्रवेश कर चुकी थी. वातावरण में उल्लास था.  गेहूं और चने की बालियाँ पक  चुकी थी एवं खेतों में ऐसा प्रतीत होता था मानो सोने की चादर बिछी हो. सभी लोग होली खेलने में व्यस्त थे.  धूरखेली के बाद कोई ग्यारह बारह बजे गाँव के लोग नहाने धोने में व्यस्त थे . बच्चे रंग खेलने में लगे थे.. तभी गाँव के दो गुंडे सतीश और दिनेश  रमेशर वाली के घर में घुस आये. दोनो आवारा एवं एक नंबर के शराबी थे. दोनो  की उम्र करीब अट्ठाईस – तीस बरस के आसपास की थी एवं वे  मजबूत कद काठी के थे.  जब तक इनके बाप  जीवित थे, बाप की कमाई पर आवारागर्दी करते रहे और अब पुरखों की संपत्ति बेच रहे थे।
 समाज में कुछ पुरुष अभी भी ऐसे हैं, खासकर गांवों में जिनके लिए घर से बाहर निकलने वाली स्त्रियाँ, सबसे हँसने बोलने वाली स्त्रियाँ कुलटा एवं चरित्र हीन होती हैं. सतीश एवं दिनेश भी ऐसी ही मानसिक विकृति से पीड़ित थे.
रमेशर वाली घर में अकेली थी.  उसका पति कलकत्ता में था एवं बेटा सुरेन्द्र कहीं खेलने में व्यस्त था. वह अपने बेटे के लिए होली के अवसर पर कुछ विशेष खाना बना रही थी. ऐसा अवसर बहुत कम होता था जब उसे अपने बेटे के लिए कुछ बनाने का अवसर मिलता था. ज्यादातर तो वह सुबह सात बजे ही अपने फेरी के काम से निकल जाता था. अचानक  से सतीश ने उसको पीछे से पकड़ लिया. यह तो साफ़ ही था कि दोनों के इरादे नेक नहीं थे. दोनों उसके साथ जबरदस्ती करने का प्रयत्न करने लगे.
 थोड़ी देर के बाद अचानक से हुए शोर गुल ने सबका ध्यान खींचा . चूल्हे पर पकवान तल रही स्त्रियाँ चूल्हा छोड़कर बाहर आ गयी, आराम फरमाते या नहाते पुरुष भी दौड़े आये. लोगों ने देखा कि दोनों बदमाश युवक बदहवाश भागते चले आ रह हैं  और उनके पीछे रमेशर वाली हाथ में लकड़ी काटने वाली कुल्हाड़ी लिए दौड़ी आ रही है.  उसके कपड़े फटे थे एवं साड़ी खुल चुकी थी . वह पेटीकोट और ब्लाउज पहने थी . चोट लगने के कारण उसकी जीभ कट गयी थी एवं जीभ  से खून रिस रहा था. वह साक्षात् चंडी प्रतीत हो रही थी. उसके आँखों से खून टपक रहा था. वह क्रोध की अग्नि में धधक रही थी. साफ़ साफ़ लग रहा था कि इन गुंडों ने उसके साथ गलत करने की कोशिश की थी जिसका उसने विरोध किया था एवं टांगी लेकर उनको मारने के लिए उतारू हो गयी थी. स्त्रियाँ ऐसे तो निर्बल एवं ममतामयी प्रतीत होती हैं लेकिन अगर वे बदला लेने के लिए उद्धत एवं हिंसक हो जाए तो वे पुरुषों से अधिक सबल हो जाती हैं.
उस खुले से जगह में स्त्री पुरुषों की भीड़ इकट्ठी हो गयी थी. बच्चे भी खेल छोड़ कर वहां जमा हो गए . उस जगह के चारो ओर घर थे एवं बीच में एक खुली जगह थी.  जो नव वधुएँ घर से बाहर नहीं आ सकती थीं वे खिडकियों पर आ गयीं.
स्त्री पुरुषों की भीड़ देख कर दोनों गुंडों को हौसला हुआ, उन्होंने सोचा कि वे लोग उनकी तरफ होंगे एवं उनकी  मदद करेंगे. आखिर वे उनकी जाति वाले थे.  वे रुक गए एवं रमेशर वाली के चरित्र पर लांछन लगाते हुए एवं भद्दी गालियां देते हुए उससे  टांगी छीनने का प्रयत्न करने लगे. लेकिन रमेशर वाली तो चंडी बन चुकी थी. वह कहाँ उनके वश में आने वाली थी. लेकिन इसी बीच जो हुआ उसकी कल्पना उन गुंडों ने नहीं की थी. गाँव की औरतें रमेशर वाली का पक्ष लेते हुए उन गुंडों पर टूट पड़ी. जिसके हाथ में जो लगा उसी से उनकी पिटाई करने लगी. कोई लकड़ी से, कोई चप्पल से तो कोई खाली हाथ से भी उन गुंडों पर पिल पड़ी. जब घर की औरतें किसी की ठुकाई पिटाई कर रही हों तो पुरुष चुप कैसे रहते . वे भी उन गुंडों की पिटाई करने लगे. पांच मिनट की पिटाई के बाद ही उन गुंडों की हालत सड़क पर दुर्घटना में घायल कुत्ते जैसी हो गयी.  वे हाथ जोड़ कर माफ़ी मांगने लगे, रमेशर वाली के पैर पकड़ लिए. लोगों ने समझा बुझा कर रमेशर वाली के हाथ से कुल्हाड़ी  लिया और उसे उसके घर तक पहुंचाया. थाना में केस हुआ और दोनों गुंडे जेल भेज दिए गए. जेल से जमानत पर रिहा होने के बाद दोनों गुंडे  सतीश एवं दिनेश  गाँव से बाहर कहीं कमाने चले गए। उस दिन की पिटाई और जेल जाने के बाद गाँव में रहने की उनकी हिम्मत नहीं रह गयी थी. यह नारी शक्ति की जीत थी. यह गाँव की महिलाओं की जीत थी कि उनकी सामूहिक शक्ति ने बलात्कार का प्रयास करने वाले गुंडों की  न केवल पिटाई की बल्कि उन्हें जेल भी भिजवा दिया.
लेकिन इस घटना के बाद रमेशर वाली बुझी बुझी सी रहने लगी. शादी, ब्याह, मुंडन आदि में गला फाड़ कर माइक पर गीत गाने वाली, नेग के लिए सौ सौ हुज्जतें करने वाली आवाज़ ने ख़ामोशी अख्तियार कर ली थी. वह अब किसी के यहाँ नहीं आती जाती थी. चुपचाप अपने घर में पड़ी रहती थी. गांव की शादियाँ सूनी होने लगी. सब उससे मिन्नतें करते पर वह तो मानो बर्फ की सिल्ली बन गयी थी. उसके घर के ओसारे में कूड़ा पड़ा रहता, मानो वहां कोई रहता नहीं हो. कई कई दिनों तक वह घर में झाड़ू नहीं लगाती. उसके जीवन से आनंद कहीं खो गया था.

उसके पति ने, जिसे अपनी  बहादुर पत्नी की उसके हिम्मत और संघर्ष के लिए सराहना करनी चाहिए थी, उस पर नाज़ होना चाहिए था,  उसका साथ छोड़ दिया. इस बार जब वह कलकत्ता गया तो वापस नहीं लौटा. कई लोगों से सुना गया कि उसने वहीँ किसी दूसरी औरत से शादी कर ली थी.
इसी दौरान उसका बेटा सुरेन्द्र भी गाँव छोड़ कर कहीं चला गया। उसे शायद यह लगता था कि जो कुछ हुआ उसमे उसकी माँ की ही गलती है .  अब वह बाहर कहीं कोई व्यवसाय करने लगा था।
उसे लगता था कि अपने पति और बेटे के लिए वह एक ऐसे दोष की दोषी थी, जिसे उसने किया ही नहीं था. जिसका उसने बहादुरी से प्रतिवाद किया था और जिसके लिए वह प्रसंशा की हक़दार थी. उसका दोष शायद सिर्फ यही था कि वह एक औरत थी.
रमेशर वाली एक बहादुर औरत थी . वह सारी दुनियां से लड़ लेती. बड़े से बड़े तूफानों के आगे पर्वत की तरह अविचल खड़ी रह सकती थी. लेकिन अपने पति और बच्चे का वह क्या करती. उन्हें कैसे समझाती. पूर्वाग्रही एवं दुराग्रही मानसिकता से ग्रसित अपने पति और बेटे के सामने वह लाचार हो गयी. वह एक ममतामयी माँ थी. उन दो गुंडों सतीश और दिनेश से वह अकेले निबट सकती थी लेकिन अपने कलेजे से कोई भला कैसे निबटे. वह टूटती चली गयी
रमेशर वाली को जो देखता उसका कलेजा धक से बैठ जाता. जीवन से भरी हुई, सदा हँसती, गाती, मुस्कुराती रमेशर वाली अचानक से बूढ़ी लग रही थी। मानो किसी ने चंचला नदी के प्रवाह को रोक दिया हो और उसके पानी  में काई पड़ गयी हो. वह विधवा की तरह सफ़ेद धोती को साड़ी की तरह शरीर पर लपेट कर पहनती.  कुछ महीनों में लगता था उसने कई वर्षों की यात्रा कर ली हो। मानो किसी खिले हुए फूल के बाग़ को पागल हाथियों ने रौंद दिया हो। उस घटना के बाद रमेशर वाली ने कभी ब्लाउज नहीं पहना और एक विधवा की तरह ही जीवन जीती रही।
रात में कभी कभी जोर से उसके रोने की आवाज आती. और उसके बाद वह सिसकते हुए गाती “कौने चोरवा नगरिया लूटले हो रामा”.  गाँव की स्त्रियाँ उसके बाद बेचैन होकर उठ बैठती.
#नीरज नीर
(अक्षर पर्व के मार्च २०१८ अंक में प्रकाशित )
painting courtsey : ishrat humairah

Wednesday 18 April 2018

कठुआ और उसके मायने : अफवाहों से पीड़ित देश में

भारत एक अफवाहों से पीड़ित देश है. कोई भी बात पल भर में वायरल हो सकती है. कई बार मार्क ज़ुकेरबर्ग का सन्देश इतने आत्मविश्वास के साथ शेयर किया जात है मानो उन्हें शेयर करने वाले ने प्रत्यक्ष प्रमाण किया है. ऐसा करने वाले अधिकतर पढ़े लिखे लोग होते हैं या कम से कम जो मुझे भेजते हैं वे स्वघोषित बुद्धिजीवि एवं देश, समाज के लिए बड़े चिंतित दिख रहे लोग होते हैं. लेकिन वे ज़रा ठहर कर ये नहीं सोचते कि अगर whatsapp या फेसबुक को अपने सब्सक्राइबर को कोई मेसेज देना होगा तो एक क्लिक से सीधे सबको यह सन्देश पहुँचा देगा उसे उनके जैसे लोगों की बीच में जरूरत नहीं होगी. लेकिन लोग शेयर करते हैं, अंधाधुंध शेयर करते हैं.
भारत के पढ़े लिखे लोगों में भेड़ चाल अधिक है. शायद उन्हें यह डर सताता है कि किसी बात पर अगर उन्होंने प्रतिक्रिया नहीं दी या अन्य लोगों की तरह नहीं दिखे तो वे पीछे छूट जायेंगे.
ऐसे अफवाहों के माध्यम से विशिष्ट उद्देश्य के हेतू किसी भी घटना विशेष को एक एजेंडा के तहत प्रचारित प्रसारित करके, मीडिया को मैनेज करके देश भर में आन्दोलन फैलाकर देश को अस्थिर करने की कोशिश की जाती है इसमें सोशल मीडिया का भी बड़ा योगदान होता है.
दो समुदाय के लोगों के बीच नफरत फैलाकर एक समुदाय विशेष को यह अनुभव करवाया जाता है कि वे दूसरे समुदाय के द्वारा ज्यादतियों के शिकार हो रहे हैं एवं इस तरह उनका ध्रुवीकरण किया जाता है लेकिन इसके परिणामस्वरुप लोग अक्सर जो स्वयं को विवेकशील कहते हैं बिना किसी विवेक एवं तर्क का प्रयोग किये उद्वेलित हो उठते हैं. ताज़ा उदाहरण जम्मू में हुई घटना का है. वहां जो हुआ वह हर तरह से निंदनीय है एवं सजा के योग्य है . कानून को इस बारे में बिना शक सख्त से सख्त कारवाई करनी चाहिए. ह्त्या या बलात्कार किसी का भी हो सजा के योग्य है. पर जो लोग राजनैतिक फायदे या किसी भी ज्ञात, अज्ञात कारणों से समाज को अस्थिर करना चाहते हैं उन्हें किसी की ह्त्या या किसी को सजा से कोई लेना देना नहीं है. वे बस ध्रुवीकरण में लगे हैं.
पर इस बारे में लोग अंधाधुंध प्रतिक्रिया दे रहे है, बिना यह सोचे कि वे किसी और के द्वारा सेट किये गए एजेंडा के शिकार भर हैं. कितने लोगों को मालूम है कि कठुआ में बच्ची की हत्या 8 या 9 जनवरी 18 को हुई? तीन महीने तक कोई स्वतः स्फूर्त आन्दोलन खड़ा नहीं हुआ. अचानक से मध्य अप्रैल में लोगों को पता चलता है कि एक मंदिर में एक मुस्लिम बच्ची का बलात्कार हिन्दुओं के द्वारा किया गया है. किसी को अपने हिन्दू होने पर लज्जा आ रही है, किसी को अपने आदमी होने पर. कोई धर्म को गाली दे रहा है कोई समाज को. लोग जजमेंटल हो रहे हैं. तरह तरह की तस्वीरें जारी की जा रही है. त्रिशूल को कंडोम पहनाया जा रहा है तो कहीं त्रिशूल को स्त्री योनि में घोंपा हुआ दिखाया जा रहा है. कोई अपनी प्रोफाइल काली कर रहा है तो कोई प्रोफाइल में क्रॉस लगा रहा है. पूरे हिन्दू समाज को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है. और ऐसा कर कौन रहा है? ऐसा हिन्दू ही कर रहे हैं. एक मशीन की तरह वे प्रतिक्रिया दे रहे हैं. श्रीनगर से लेकर सुदूर केरल तक मार्च निकाले जा रहे है. क्या आपको ऐसा नहीं लग रहा है कि दो से तीन दिनों के अन्दर इतने बड़े देश में इतना बड़ा आन्दोलन इसलिए खड़ा हो गया क्योंकि इसकी पूर्व से ही तैयारी थी.
आप किसी दिन का अखबार उठा कर देखें. राँची जैसे शहर में निकलने वाले अखबार में दो- तीन बलात्कार की खबरें रोज़ होती है. लेकिन खबर में पीड़िता का नाम या तो दिया नहीं जाता या बदल दिया जाता है . बलात्कारी भी अगर पीड़िता से अलग धर्म का है तो उसका नाम भी नहीं प्रकाशित किया जाता है. लेकिन कठुआ वाले केस में ऐसा क्यों नहीं किया गया? क्यों खबर को इस तरह प्लांट किया गया कि मुस्लिम बच्ची का बलात्कार हिन्दुओं के द्वारा किया गया? क्या यह देश में बलात्कार एवं ह्त्या की पहली घटना थी? क्या किसी मुस्लिम के द्वारा कभी किसी हिन्दू लड़की का बलात्कार नहीं किया गया या कभी किसी मस्जिद में बलात्कार नहीं हुआ? मैं व्यक्तिगत रूप से एक घटना जानता हूँ जिसमें एक औरत एक मस्जिद में मौलवी से झाड फूंक करवाने गयी और वहाँ उसका बलात्कार किया गया. इतने बड़े देश में क्या यह कोई असाधारण घटना है ? ज़रा तर्कसंगत रूप से सोचिये एवं अपने विवेकशील होने का परिचय दीजिये. किसी और के द्वारा सेट किये गए एजेंडे का शिकार मत बनिए. सरकारें आती जाती रहेगी पर देश और समाज का बने रहना जरूरी है.
आज जबकि भारत को अस्थिर करने की बड़ी साजिशें हो रही हैं. देश विदेश में स्थित ताक़ते एवं विदेश में हायर की गयी एजेंसीज अपना प्राणपन लगा रही है वैसे में अत्यधिक सावधानी जरूरी है.
एक सोची समझी साजिश के तहत मुस्लिमों के मन में यह भय भरने की कोशिश की जा रही है कि हिन्दू उनपर अत्याचार कर रहे हैं, उनकी बेटियों का बलात्कार किया जा रहा है. हालांकि इसका त्वरित उद्देश्य उनका ध्रुवीकरण करके चुनावी लाभ उठाना भर है पर इसका दूरगामी परिणाम बहुत ही भयानक हो सकता है. इसलिए समाज के सभी वर्गों से मेरा अनुरोध है कि किसी भी बात को आगे बढ़ाने या उसपर एक्ट करने से पूर्व सोचिये समझिये और फिर आचरण कीजिये.
#neeraj_neer
#kathua
#social_media
#Asifa
#J&K 

Tuesday 3 April 2018

"युद्धरत आम आदमी" के मार्च २०१८ अंक में प्रकाशित नीरज नीर की कवितायें

 "युद्धरत आम आदमी" के मार्च २०१८ अंक में प्रकाशित नीरज नीर की कवितायें 




Saturday 17 March 2018

गीत : बीता जाए बसंत

साहित्य अमृत के मार्च २०१८ अंक में मेरा एक गीत 

#गीत #geet #बसंत #basant #neeraj_neer 

Friday 2 March 2018

होली मन में उमँग भरन लागे



(you tube पर इसे सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें)   

होली मन में उमँग भरन लागे

झूम रही अमवाँ की डाली,  झूमे बाँस बसेड़ी
जब से फाल्गुन आया महीना, मौसम हुआ नशेड़ी
मस्ती में मनवां झूमन लागे

चल रही है हवा बासंती, इधर उधर बौराये
मटक मटक के चले गुजरिया, दिल में आग लगाए
यौवन फाल्गुन में बहकन लागे

सरसों फूले पीले पीले, महुआ रस बरसाए
दिल छोरों का घायल हो, नैनों के बाण चलाये
गोरी अँखियाँ दबाय हँसन लागे 

खेल रहे हैं जीजा साली, खेल रही घर वाली
दुआरे बैठे फगुआ गाये, टोली बजा के ताली
ढोल झांझर संग बजन लागे

चाट, फुलौड़ी और पकौड़ी, बना रहे मालपुआ
ठंढई में भांग मिलाके, घोंट रही है फ़ूआ
आई लव यू फूफा को कहन लागे

बारह महीने अँखियाँ तरसी, तब बालम जी आये
होली बीते जइहें सजनवाँ, दिल मोरा घबराए
जिया धक धक मोरा करन लागे
https://youtu.be/BalKXzEoI0A

#Neeraj neer
#Holi #geet #falgun #

Sunday 25 February 2018

अनारकली


कभी कभी मैं डर जाता हूँ
सोचकर ...
कितनी डरावनी रही होगी
अनारकली की मौत
मृत्यु के कुछ सबसे खतरनाक तरीकों में है
दीवार में चुनवा देना ....
लिफ्ट में फँसे आदमी से
कितनी गुना भयानक रही होगी
अनारकली की बेचैनी
घनघोर अँधेरे में अपनी ही छोड़ी हुई साँसे
घोट रही होंगी
उसका गला
हर हलचल पर दिखती होगी
ईंटे खिसकती हुई
होता होगा भ्रम कि
कलेजे में भर रही है ताज़ा हवा
या कि खुदा का क़हर नाज़िल हो रहा है
ईंटे चुनवाने वाले पर
और दीवार दरक रही है अपने आप ...
कितनी बेचैन रही होगी अनारकली
बेहोश होने के पूर्व तक
जब मृत्यु के स्वामी ने मुस्कुराते हुआ
किया होगा उसका वरण
शायद सलीम का रूप धर कर आया होगा
मृत्यु का देवता
प्रेम  की सबसे कठिन परीक्षा जो पास की थी
अनार कली ने
अकबर की आंखे क्या कभी नज़र मिला पाती होगी
उस दीवार से ?
सलीम ने क्या कभी महसूस किया होगा
अनारकली को नूरजहाँ के अधरों पर ?
“जोधा अकबर”  फिल्म का पोस्टर चिपका है
उसी दीवार पर
जिसके भीतर चुनवा दी गयी थी
अनारकली प्रेम करने के जुर्म में
मैं कभी कभी डर जाता हूँ
नए प्रतीक गढ़ने वालों की चतुराई से
जो नागफनी के काँटों में ढूंढते है खुश्बू
और गुलाब को रखते हैं लपेट कर
चादरों के नीचे
उपजाते हैं नई परिभाषायें
लगाते हैं नए अर्थ
जिन्होंने बना दिया अकबर को प्रेम का प्रतीक

मैं डर जाता हूँ कभी कभी सोचकर कि
कोई इतिहासकार किसी दिन
झुठला न दे
अनारकली का होना
और उसे घोषित कर दे
एक मिथकीय चरित्र
... नीरज नीर
13/09/2017

Thursday 25 January 2018

कुछ तो नया कीजिये अबके नए साल में

"जंगल में पागल हाथी और ढोल" संग्रह से एक कविता :
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कुछ तो नया कीजिये अबके नए साल में

सूर्य वही चाँद वही
धूप  वही छांव वही
वही गली वही डगर
गांव वही, वही शहर
घृणा वही, रार वही
दिलों में दीवार वही
मंदिर और मस्जिद के
जारी हैं तकरार वही
प्रेम होना चाहिए आपस में हर हाल में
कुछ तो नया कीजिये अबके नए साल में

वही गगन वही धरा
आदमी है डरा डरा
हर तरफ आतंक वही
मजहबी पाखंड वही
रीति वही नीति  वही
कायम राजनीति वही
भूख वही लूट वही
लूटने की छूट वही
उलझा हुआ है आदमी पेट के सवाल में
कुछ तो नया कीजिये अबके नए साल में

सोच व  विचार वही
वोट का आधार वही
चाल वही भेड़ वही
कुर्सी का खेल वही
सत्ता का लोभ वही
जनता में क्षोभ वही
रोग व बीमार वही
वैद्य उपचार वही
लोकतंत्र पड़ा है कब से अस्पताल में
कुछ तो नया कीजिये अबके नए साल में….
………… #नीरज  नीर
#neeraj_neer
#new_year
#hindi_poem
#jungle_mein_ pagal_ hathi_ aur_ dhol 

Wednesday 3 January 2018

आपने "जंगल में पागल हाथी और ढोल' पढ़ा क्या?

"जंगल में पागल हाथी और ढोल' को पढ़कर वरिष्ठ कवि श्री राजेश्वर वशिष्ठ कहते हैं -------- ------- ------ . नीरज नीर बहुत संभावनाशील,चैतन्य कवि हैं जो समाज की नब्ज को भरपूर विवेक और ईमानदारी से अपनी कविताओं में टटोलते हैं। हिंदी कविता के परिदृश्य में यह एक चमकदार नक्षत्र का प्रतीक्षित उदय है। बधाई। ------ ----- --- आपने "जंगल में पागल हाथी और ढोल' पढ़ा क्या ???? अगर नहीं तो अभी मंगाएं यह संकलन मात्र 120/- रु. में उपलब्ध है। डाक ख़र्च फ्री। रज़िस्टर्ड डाक से किताब भेजी जाएगी। मूल्य आप इस नंबर पर पेटीएम कर सकते हैं- 8756219902 या इस खाते में जमा करा सकते हैं- accont details- Rashmi prakashan pvt. ltd. a/c no- 37168333479 state bank of india IFSC Code- SBIN0016730 आपको पुस्तक भेज दी जाएगी। मूल्य जमा कराने के पश्चात जमा कराने का प्रमाण अौर अपना पूरा पोस्टल एड्रेस 08756219902 पर वाट्सअप कर दें --- अमेज़न पर भी आप इसे खरीद सकते हैं :
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