भारत में बुजुर्गों की स्थिति जिस तरह दयनीय होती जा रही है उस पर विचार करने की आवश्यकता है । संयुक्त परिवार के टूटने के साथ ही भारतीय पारिवारिक संस्कार एवं मर्यादाएं भी टूटकर बिखर रही हैं । कुछ तो मजबूरियां होती है और कुछ बच्चों की अपने बुजुर्ग माँ बाप के प्रति उदासीनता भी। भागती दौड़ती जिंदगी में खास कर पढे लिखे नौजवान जिस तरह स्वकेंद्रित होते जा रहे हैं यह शुभ संकेत नहीं है । आखिर उम्र किसके साथ रहा है । एक दिन तो सबको उसी गली से गुजरना है। प्रस्तुत है इसी की विवेचना करती एक कविता (नवगीत ):::::
----------------------------
बहुत दिनों से कोई ना आया
आंगन रहा उदास
आँगन जिसमे खुशियाँ लोटी
गूंजी थी किलकारी
अब एक पल भी जीना
लेकिन
लगता कितना भारी
दिवस का यह चौथा पहर
तनहाई और सूना घर
कौओं संग बातें करती
उसको ही
सुख दुःख कहती
सूने घर में बुढ़िया अकेली
बैठी चौके के पास
सँग नहीं अब कंचन काया,
पास नहीं
कर में माया.
नींद निशा भर
आती नहीं
ममता मगर जाती नहीं
सूरज के उगने के संग
जगती है नई
नित आस
देखे बिन निज लाल को
बुझती नहीं आखों की प्यास
दो गह्वर से सावन झरता
हृदय हो जाता
खारा
जिन पौधों को सस्नेह सींचा
परदेश बसा प्यारा
चूल्हे में लकड़ी जलती
भीतर भीतर जलता मन
उम्मीद की पतली डोर से
टिका हुआ है
निर्बल तन .
जीवन में कोई रंग नहीं
नहीं रंग का प्रयास .
बहुत दिनों से कोई न आया
आंगन रहा उदास
सूने घर में बुढ़िया अकेली
बैठी चौके के पास ..
नीरज कुमार नीर
#neeraj_kumar_neer
#neeraj_kumar_neer
अगर आपके दिल तक बात पहुचे तो अपना समर्थन अवश्य दें .
चित्र गूगल से साभार.
हजारोँ एकाकी वृद्धोँ की अकथ कहानी को शब्द देने के लिए आभार..
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक भाव ....सुंदर रचना ........!!
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक ...एकल होते परिवारों के कारण बुज़ुर्गों का जीवन सच में अकेलापन से मिलकर बहुत दुखदायी हो गया है
ReplyDeleteआपकी लेखनी और सोच को नमन
बहुत ही मार्मिक रचना.
ReplyDeleteनई पोस्ट : कावड़ : लोकमन का उत्कृष्ट शिल्प
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (30-11-2013) "सहमा-सहमा हर इक चेहरा" “चर्चामंच : चर्चा अंक - 1447” पर होगी.
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
बहुत आभार राजीव जी ..
Deleteबहुत ही प्यारे ढंग से आपने ह्रदय को छूने वाले भाव उकेरे हैं. सचमुच इनकी व्यथा कौन जान पाता है. रोटी की मजबूरी. कितना कुछ छूट जाता है उसके पीछे.
ReplyDeleteबहुत सुंदर मार्मिक भाव लिए उत्कृष्ट रचना ....!
ReplyDelete================== =========
नई पोस्ट-: चुनाव आया...
सुंदर पंक्तियों से सजी आपकी सुंदर कृति , बढ़िया नीरज भाई
ReplyDeleteनया प्रकाशन --: अपने ब्लॉग या वेबसाइट की कीमत जाने व खरीदें बेचें !
बीता प्रकाशन --: तेरा साथ हो , फिर कैसी तनहाई
बहुत सुन्दर....मन के भीतर उतरती रचना....
ReplyDeleteअनु
बहुत मर्मस्पर्शी रचना...
ReplyDeleteसोचने को मजबूर करती कविता। सत्य।
ReplyDeleteदो गह्वर से सावन झरता
ReplyDeleteमन हो जाता खारा
जिन पौधों को स्नेह से सींचा
परदेश बसा है प्यारा.मर्मस्पर्शी .....
शीर्षक ही इतना बहेतरीन है कि क्या कहा जाए … बहुत अच्छा।
ReplyDeleteWaah Neeraj ji,bahut hi shandar,marmik,charitra chitran aapki,,badhai ho aapko,meri hardik shubh kamanaye aapko...
ReplyDeleteअत्यंत मार्मिक रचना नीरज जी !
ReplyDeleteशुक्रिया आपकी टिप्पणियों का समाज सापेक्ष लेखन का आपके। बहुत सुन्दर भाव चित्र उभारा है इस रचना में -
ReplyDeleteदो गह्वर से सावन झरता
मन हो जाता खारा
जिन पौधों को स्नेह से सींचा
परदेश बसा है प्यारा.
चूल्हे में लकड़ी जलती,
भीतर जलता मन.
उम्मीद की पतली डोर से
टिका हुआ निर्बल तन .
जीवन में कोई रंग नहीं
नहीं रंग का प्रयास .
बहुत दिनों से कोई न आया
आंगन रहा उदास
सुने घर में बुढ़िया अकेली
बैठी चौके के पास ..
..... नीरज कुमार ‘नीर’
न सिर्फ दिल के पास .. बल्कि छू गई दिल को ...
ReplyDeleteआँगन का मूक साथ ... अम्मा के साथ ...
सुंदर एवं आवश्यक रचना ! आभार आपका !
ReplyDeleteउस सीने पर थपकी पाकर
तुम्हे नींद आ जाती थी !
उस ऊँगली को पकडे कैसे
चाल बदल सी, जाती थी !
वो ताक़त कमज़ोर दिनों में,धोखा देती अम्मा को !
काले घने , अँधेरे घेरें , धीरे धीरे , अम्मा को !
बहुत उम्दा भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
badhiya bhavabhivyakti...
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना ....
ReplyDelete