रूपसी ने सोलह श्रृंगार
जब कर लिया.
बिना चाकू छुरी के कतल
मुझे कर दिया.
अब तो ख्वाबों में ख्याल
उसी का है,
अपने मोहपाश में मुझको जकड़
लिया.
बिना अपराध किये सजा का
मैं भागी हुआ,
बिना सुनवाई के सजा मुझे
कर दिया.
जुल्फों की कैद से कैसे
आजादी मिले,
बिना हथकड़ी के कैद मुझे
कर लिया.
रंग गया हूँ, प्रेयसी के
रंग में ही,
बिना अबीर गुलाल के
मुझको रंग दिया.
अब भी मेरे अधरों पे मधु
रस बाकी है,
अधरों को अपने, मेरे
अधरों पे रख दिया.
...................नीरज
कुमार’नीर’
Very nice poem
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