2212 2212 2212 22
दर्पण जमी हो धूल तो शृंगार कैसे हो
भूखा है जब तक आदमी तो प्यार कैसे हो
महगाई छूना चाहती जब आसमां साहब
निर्धन के घर अब तीज औ त्योहार कैसे हो
मतलब नहीं जब आदमी को देश से हरगिज
तो राम जाने देश का उद्धार कैसे हो
सब चाहते बनना शहर में जब जाके बाबू
तुम्ही कहो खेतों में पैदावार कैसे हो
ले चल मुझे अब दूर मुरदों के शहर से
मुर्दा शहर में जीस्त का व्यापार कैसे हो ....
.............. नीरज कुमार नीर
दर्पण जमी हो धूल तो शृंगार कैसे हो
भूखा है जब तक आदमी तो प्यार कैसे हो
महगाई छूना चाहती जब आसमां साहब
निर्धन के घर अब तीज औ त्योहार कैसे हो
मतलब नहीं जब आदमी को देश से हरगिज
तो राम जाने देश का उद्धार कैसे हो
सब चाहते बनना शहर में जब जाके बाबू
तुम्ही कहो खेतों में पैदावार कैसे हो
ले चल मुझे अब दूर मुरदों के शहर से
मुर्दा शहर में जीस्त का व्यापार कैसे हो ....
.............. नीरज कुमार नीर
(चित्र गूगल से से साभार )
बहुत ही सुन्दर, रूप देखना हो सचमुच का, दर्पण हिय का साफ करो जी।
ReplyDeleteबहुत उम्दा ग़ज़ल -बहुत सुन्दर !
ReplyDeletelatest दिल के टुकड़े
latest post क्या अर्पण करूँ !
पढ़ लिख कर सब बन गए शहर में दफ्तर के बाबू ,
ReplyDeleteखेतों में अनाज की अब पैदावार कैसे हो ...
वाह सुभान अल्ला ... क्या गज़ब की बात आसानी से कह दी ...
कमाल का शेर ... और लाजवाब गज़ल ...
कुंठा को कितने बेहतर तरीके से उभारा है .... वाह
ReplyDeleteशुक्रिया भाई ।
ReplyDelete
ReplyDeleteमंहगाई को जिद ही है अब छूने को आसमां,
गरीबों के घर तीज और त्यौहार कैसे हो .
मतलब नहीं है देश के आदमी को देश से,
राम जाने इस देश का बेड़ा पार कैसे हो .
ले चल अब मुझे दूर कहीं मुर्दों के शहर से ,
मुर्दों के शहर में गजल का कारोबार कैसे हो.
सुन्दर ,सटीक और सार्थक . बधाई
सादर मदन .कभी यहाँ पर भी पधारें .
http://saxenamadanmohan.blogspot.in/
ले चल अब मुझे दूर कहीं मुर्दों के शहर से ,
ReplyDeleteमुर्दों के शहर में गजल का कारोबार कैसे हो.
कमाल का शेर और लाजवाब गज़ल,बहुत सुन्दर निरज भाई.
आपने लिखा....हमने पढ़ा....
ReplyDeleteऔर लोग भी पढ़ें; ...इसलिए शनिवार 27/07/2013 को
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
पर लिंक की जाएगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!
सुन्दर काव्य रचना।। आपके चिठ्ठे(ब्लॉग) का अनुसरण कर रहे हैं!!
ReplyDeleteनये लेख : जन्म दिवस : मुकेश
आखिर किसने कराया कुतुबमीनार का निर्माण?
ले चल अब मुझे दूर कहीं मुर्दों के शहर से ,
ReplyDeleteमुर्दों के शहर में गजल का कारोबार कैसे हो.
...बहुत सही ...
'मुर्दों के शहर में गजल का कारोबार कैसे हो.'
ReplyDeleteवाह!
संवेदनाओं का मर जाना सभी विडम्बनाओं का मूल है, सत्य को लिख कर दर्पण की धूल जैसे साफ़ करने का अप्रतिम प्रयास किया है!
बहुत सटीक और सुन्दर!
ले चल अब मुझे दूर कहीं मुर्दों के शहर से ,
ReplyDeleteमुर्दों के शहर में गजल का कारोबार कैसे हो.
वाह शानदार गजल.
रामराम.
बहुत ही खुबसूरत रचना.........
ReplyDeleteहर लाइन बहुत सटीक अर्थ लिए हुए ....
बहुत सटीक रचना, देश की हालत इन दिनो कुछ ज्यादा की खस्ता है
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteग़ज़ब. आखिरी शेर ने ज़बरदस्त प्रहार किया है. ऐसे ही लिखते रहें.
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया पहला और आखिरी शेर बहुत ही जबरदस्त !!
ReplyDeleteबहुत ही शानदार प्रस्तुति कविवर नीर साब !
ReplyDeleteमहंगाई छूना चाहती .....
बहुत सार्थक शब्द !!