मैं शीघ्र ही उनकी बातों से उब गया था . जब मेरी चाय ख़तम हो गयी तो मैंने उठते हुए विदा लेने का उपक्रम किया , जिस पर मिर्जा साहब गुनगुनाने ...... तुम्हारे जाऊं जाऊं ने मेरा दम निकाला है . लेकिन मैं इससे ज्यादा उनको नहीं झेल सकता था और मुझे यह समझ आ गया था कि आगे भी ये महाशय ऐसी ही कुछ बातें करने वाले है . जब विदा लेने के लिए हाथ मिला रहा था तो मिर्जा साहब ने अपने सामने बैठे सज्जन की और ईशारा करते हुए कहा आइये आपको मिलवाते है उनसे जो मुग़ल खानदान से आते हैं. मेरा चौंक जाना स्वाभाविक था और मैं चौक कर सामने वाले व्यक्ति को देखने लगा.
दिल्ली में प्रवास का यह मेरा दूसरा दिन था . दोपहर तक सारा काम निबटा लेने के बाद शाम में मैं बिलकुल खाली था और अकेला भी . होटल में बिस्तर पर लेटकर टीवी देखते देखते मैं शीघ्र ही बोर हो गया एवं कपड़े बदल कर निरुद्देश्य बाहर निकल आया . कमरे की चाभी को होटल के रिसेप्शन पर जमा करने के बाद मैं बाहर आ गया . मौसम बहुत ही सुहावना था . थोड़ी देर इधर उधर घुमने के बाद सोचा कि पुरानी दिल्ली का रुख करूं . लेकिन कोई ऑटो वाला पहले तो जाने को तैयार ही नहीं हुआ और जो एक दो तैयार भी हुए तो बहुत हुज्जत करने लगे कि कहाँ जाओगे , exact जगह बताओ , अब जब exact जगह का मुझे ही पता नहीं तो मैं भला उन्हें क्या बताऊँ. खैर जैसे तैसे एक ऑटो वाला राजी हुआ , वह भी इस शर्त पर कि वह मुझे दरिया गंज के कोने पर छोड़ देगा , क्योंकि उसके औटो में गैस कम है . मैंने उसकी यह शर्त मान ली. जब खुद को ही पता नहीं हो कि जाना कहाँ है तो फिर कोने पर छोड़ दे या बीच में छोड़ दे क्या फर्क पड़ता है. दरियागंज पहुँचकर इधर उधर घुमने के बाद मेरी चाय पीने की इच्छा होने लगी . दिल्ली गेट से थोडा ही पहले दाहिने हाथ की और एक चाय की दुकान दिख गयी और मैं वहां चला गया . यह चाय की एक छोटी सी दूकान थी जिसमे दो या तीन टेबल ही थे. एक टेबल पर दो सज्जन पहले से ही विराजमान थे. दूसरे टेबल पर मैं बैठ गया एवं मैंने चाय का आर्डर कर दिया. दूसरे टेबल पर बैठे दोनों व्यक्ति आपस में बातें कर रहे थे. एक व्यक्ति जिन्होंने शाल लपेटा हुआ था वे बोल रहे थे एवं उनके विपरीत बैठे दूसरे व्यक्ति उन्हें बड़े मनोयोग से लगातार सुने जा रहे थे. अभी मेरे चाय आने में देर थी , मैं यूँ ही बैठा उन्हीं लोगों की और देख ही रहा था, और यह देखना भी यूँ इत्तेफाकन नहीं हुआ था बल्कि जब मैं चाय के इन्तेजार में बैठा था तो मैंने सुना कि शॉल वाले व्यक्ति ने एक शेर कहा .
जिक्र क्या है तिनकों का, उड़ रहे हैं पत्थर भी
मसलिहत के झोंकों से आजकल फ़ज़ाओं में
मुझे अपनी और देखते हुए उन्होंने मुझे देख लिया एवं अपने पास बुला लिया . मुझे भी वहां उनके पास बैठने में कोई आपत्ति नहीं थी . मैं भी वहां जाकर बैठा गया. अब वहां उस टेबल पर तीन लोग हो गए. दो वे लोग पहले से थे और एक मैं. खैर मेरा थोडा बहुत परिचय होने के बाद शॉल वाले साहब पुनः अपने धुन में रम गए .
इसी बीच मेरी चाय आ गयी . मैंने देखा कि सामने वाले व्यक्ति बिना कुछ बोले शॉल वाले व्यक्ति की हर बात पर अपनी सहमती जता रहे हैं एवं उनकी हर बात को बड़े गौर से सुन रहे हैं. लेकिन शॉल वाले साहब जो बातें कर रहे थे वह बड़ी अजीबो गरीब थी. बात चीत के दौरान पता चला कि वे आगरा के आस पास कहीं के रहने वाले थे एवं काफी पहले दिल्ली में आकर बस गए थे. उन्होंने अपना नाम मिर्जा जफ़र बेग बताया. मिर्जा साहब बता रहे थे कि जब वे बीस साल की अवस्था में दिल्ली आ गए तो एक सरदार जी ने जिनका लिपि प्रकाशन के नाम से पुस्तक प्रकाशन का काम था उनकी बड़ी मदद की . उन्होंने बताया कि कैसे उन सरदार साहब को उर्दू के सिवा कोई और भाषा आती नहीं थी और उन्हें लिखने का बड़ा शौक था और उनके उर्दू लेखन को इन्होने हिंदी में लिखा था जिसे सरदार जी ने अपने प्रकाशन से प्रकाशित किया था . लेकिन शीघ्र ही मिर्जा साहब अपने जवानी के दिनों में खो गए एवं बताने लगे कि कैसे एक गुर्जर ने उनके कॉलेज में एक लड़की के गाल पर हाथ फेर दिया और कैसे उन्होंने उस गुर्जर लडके को एक ऐसा सपाटा मारा कि वह लड़का वहीँ गिर कर बेहोश हो गया. मिर्जा साहब पर उनके जवानी के दिन कुछ यूँ हावी थे कि वे उससे बाहर निकलने को तैयार ही नहीं थे . सारी लडकियाँ उनकी दीवानी थी और कॉलेज के प्रिंसिपल साहब बिना उनसे पूछे कोई भी बड़ा फैसला नहीं लिया करते थे. एक साठ पैंसठ साल के आदमी के द्वारा ये सारी बातें करना वह भी एक अजनबी के सामने मुझे बड़ी अजीब लग रही थी . लेकिन सामने जो सख्स बैठे थे वे उनकी बातों को बहुत ही गौर से सुन रहे थे मानो उनकी बात को अभी नोट बुक निकाल कर नोट कर लेंगे.
मिर्जा साहब की आत्म मुग्धता जारी थी . मैं अब किसी तरह वहां से पिंड छुड़ाना चाहता था . मेरी चाय ख़तम हुई और मैं झटके से उठ खड़ा हुआ . मिर्जा साहब अपने जवानी के किस्से में इतने मशगूल एवं गर्वोन्मत्त थे कि उन्हें मेरा उठ जाना अविश्नीय लगा. लेकिन मैं चले जाने को दृढ संकल्पित था . इस बीच सामने बैठे व्यक्ति जिन्होंने दाढ़ी रखी हुई थी चश्मा पहना हुआ था और देखने से मुसलमान प्रतीत हो रहे थे ने एक भी शब्द नहीं बोला था . मैंने चाय के पैसे देने के लिए अपनी जेब से बटुआ निकाला और पैसे निकालने लगा तो मिर्जा साहब ने कहा कि रहने दीजिये चाय के पैसे हम दे देंगे, लेकिन मैंने चाय के पैसे दुकानदार को दे दिए.
जब मैंने विदा लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो मिर्जा साहब ने कहा आइये आपको मिलवाते है उनसे जो मुग़ल खानदान से आते हैं और उन्होंने सामने बैठे दाढ़ी वाले व्यक्ति की और इशारा किया . मैंने उनसे पूछा “ अच्छा ! आप मुग़ल हैं ? इसपर उन्होंने कन्फर्म किया कि वे बहादुर शाह जफ़र के खानदान से हैं . मुझे वे दिलचस्प लगे और मैं दुबारा बैठा गया . मिर्जा साहब को मेरा बैठना बहुत ही प्रिय लगा . उन्होंने कहा “हम भी मुग़ल है ये बादशाह खानदान से हैं हम नवाबों के खानदान से . लेकिन फिर मिर्जा साहब ने बात भटका दी और बात अपनी और खींच कर ले गए जिसका मुख्य विषय था वर्तमान समय की मोदी की राजनीति और मिर्जा साहब की राजनैतिक पँहुच . लेकिन मेरी कोई भी दिलचस्पी अब उनकी बातों में नहीं थी और मैं दाढ़ी वाले व्यक्ति के बारे में जानने को उत्सुक था.
मैंने मिर्जा साहब की बात की और ध्यान नहीं देते हुए दाढ़ी वाले व्यक्ति से उनका नाम पूछा. उन्होंने अपना नाम बताया ..... “फैज़ुद्दीन ख्वाजा मोइउद्दिन बहादुर शाह तृतीय”
आपकी तरह मैंने भी बहादुर शाह द्वितीय तक का ही नाम सुना था.
“अच्छा तो आप बहादुर शाह तृतीय हैं” मैंने मुस्कुराते हुए पुछा. “हाँ मेरा राज्याभिषेक १९७६ में जयपुर के राज महल में हुआ था और उसमे इंदिरा गांधी भी शामिल हुई थी “ उन्होंने बताया . उस राज्याभिषेक में कई राजा महाराजा आये थे जयपुर की महारानी गायत्री देवी भी उस समारोह में मौजूद थी .
पूरी बात चीत के दौरान उन्होंने कई दिलचस्प बातें बतायी , जिसे जानना आपको भी रूचिकर लगेगा . उनके अनुसार १८५७ की लड़ाई मुग़लों ने अंग्रेजों से जीत ली थी. लड़ाई जीतने के बाद मुग़ल सैनिक रात में जब उत्सव मन रहे थे तो अंग्रेजी सेना ने उनको घेर लिया और उसमें बहुत सारे सैनिक मारे गए . इस तरह अंग्रेजों ने धोखे से मुग़लों को हरा दिया एवं बहादुर शाह जफ़र कैद कर लिए गए. १८५७ की लड़ाई की कहानी तो हम सभी जानती हिन् हैं , कभी न कभी किताबों में हम सब ने पढ़ी ही है . मेरी उत्सुकता यह जानने में थी कि उसके बाद क्या हुआ . उन्होंने बताया कि १८५७ के बाद उनके पूर्वज कर्नाटक के धारवाड़ चले गए और वहीँ रहने लगे. उन्हें आज़ादी के बाद पेंशन भी मिलती रहती , जिसे बाद में सरकार ने बंद कर दिया था.
“आप क्या करते हैं “ मैंने उत्सुकता वश पूछ ही लिया , दरअसल मेरे मन में था कि जब ये लोग धारवाड़ चले गए तो वहां की जमीन जायदाद अभी भी काफी होगी.
“मैं पत्रकार हूँ “ उन्होंने कहा .
“किस अख़बार में ?“
“नहीं मैं स्वतंत्र पत्रकार हूँ और यहाँ एक भाड़े के कमरे में रहता हूँ”
इस बीच में जब भी मिर्जा साहब ने बात चीत को अपनी ओर मोड़ने का प्रयास किया मैंने उनकी बात को तवज्जो नहीं देते हुए अपना ध्यान इस मुग़ल खानदान के चश्मो चराग की और ही रखा .
उन्होंने बताया कि जब भारत आज़ाद हो रहा था तो अंग्रेजों ने इनके खानदान के ज़हीरुद्दीन एवं ख्वाज़ा मोइउद्दिन को दिल्ली की सत्ता सौंप देने के लिए बुलाया पर कांग्रेस के नेताओं के द्वारा उन लोगों को दिल्ली नहीं जाने की सलाह की दी गयी और इस प्रकार वे दिल्ली की सत्ता वापस पाने से वंचित रह गए. इस प्रकार बहादुर शाह तृतीय को अनेक तरह की शिकायतें थी और अपनी शिकायतों को वे बड़ी गंभीरता से प्रकट कर रहे थे. उन्होंने बताया कि इंदिरा गाँधी से उनके अच्छे सम्बन्ध थे एवं इंदिरा गाँधी नै उनको खान की उपाधि प्रदान की थी .
मेरे पास उनकी बात से असहमत होने की कोई वजह नहीं थी और उनकी बात से सहमत होने का कोई आधार भी नहीं , पर कुल मिलाकर बहादुर शाह तृतीय अत्यंत दिलचस्प व्यक्ति लगे ..
इन सब बातचीत के बीच रात के साढ़े आठ बज चुके थे और अब मुझे होटल के लिए निकलना भी जरूरी था . मैंने फिर से विदा ली और वापस अपने होटल आ गया .
दिल्ली में प्रवास का यह मेरा दूसरा दिन था . दोपहर तक सारा काम निबटा लेने के बाद शाम में मैं बिलकुल खाली था और अकेला भी . होटल में बिस्तर पर लेटकर टीवी देखते देखते मैं शीघ्र ही बोर हो गया एवं कपड़े बदल कर निरुद्देश्य बाहर निकल आया . कमरे की चाभी को होटल के रिसेप्शन पर जमा करने के बाद मैं बाहर आ गया . मौसम बहुत ही सुहावना था . थोड़ी देर इधर उधर घुमने के बाद सोचा कि पुरानी दिल्ली का रुख करूं . लेकिन कोई ऑटो वाला पहले तो जाने को तैयार ही नहीं हुआ और जो एक दो तैयार भी हुए तो बहुत हुज्जत करने लगे कि कहाँ जाओगे , exact जगह बताओ , अब जब exact जगह का मुझे ही पता नहीं तो मैं भला उन्हें क्या बताऊँ. खैर जैसे तैसे एक ऑटो वाला राजी हुआ , वह भी इस शर्त पर कि वह मुझे दरिया गंज के कोने पर छोड़ देगा , क्योंकि उसके औटो में गैस कम है . मैंने उसकी यह शर्त मान ली. जब खुद को ही पता नहीं हो कि जाना कहाँ है तो फिर कोने पर छोड़ दे या बीच में छोड़ दे क्या फर्क पड़ता है. दरियागंज पहुँचकर इधर उधर घुमने के बाद मेरी चाय पीने की इच्छा होने लगी . दिल्ली गेट से थोडा ही पहले दाहिने हाथ की और एक चाय की दुकान दिख गयी और मैं वहां चला गया . यह चाय की एक छोटी सी दूकान थी जिसमे दो या तीन टेबल ही थे. एक टेबल पर दो सज्जन पहले से ही विराजमान थे. दूसरे टेबल पर मैं बैठ गया एवं मैंने चाय का आर्डर कर दिया. दूसरे टेबल पर बैठे दोनों व्यक्ति आपस में बातें कर रहे थे. एक व्यक्ति जिन्होंने शाल लपेटा हुआ था वे बोल रहे थे एवं उनके विपरीत बैठे दूसरे व्यक्ति उन्हें बड़े मनोयोग से लगातार सुने जा रहे थे. अभी मेरे चाय आने में देर थी , मैं यूँ ही बैठा उन्हीं लोगों की और देख ही रहा था, और यह देखना भी यूँ इत्तेफाकन नहीं हुआ था बल्कि जब मैं चाय के इन्तेजार में बैठा था तो मैंने सुना कि शॉल वाले व्यक्ति ने एक शेर कहा .
जिक्र क्या है तिनकों का, उड़ रहे हैं पत्थर भी
मसलिहत के झोंकों से आजकल फ़ज़ाओं में
मुझे अपनी और देखते हुए उन्होंने मुझे देख लिया एवं अपने पास बुला लिया . मुझे भी वहां उनके पास बैठने में कोई आपत्ति नहीं थी . मैं भी वहां जाकर बैठा गया. अब वहां उस टेबल पर तीन लोग हो गए. दो वे लोग पहले से थे और एक मैं. खैर मेरा थोडा बहुत परिचय होने के बाद शॉल वाले साहब पुनः अपने धुन में रम गए .
इसी बीच मेरी चाय आ गयी . मैंने देखा कि सामने वाले व्यक्ति बिना कुछ बोले शॉल वाले व्यक्ति की हर बात पर अपनी सहमती जता रहे हैं एवं उनकी हर बात को बड़े गौर से सुन रहे हैं. लेकिन शॉल वाले साहब जो बातें कर रहे थे वह बड़ी अजीबो गरीब थी. बात चीत के दौरान पता चला कि वे आगरा के आस पास कहीं के रहने वाले थे एवं काफी पहले दिल्ली में आकर बस गए थे. उन्होंने अपना नाम मिर्जा जफ़र बेग बताया. मिर्जा साहब बता रहे थे कि जब वे बीस साल की अवस्था में दिल्ली आ गए तो एक सरदार जी ने जिनका लिपि प्रकाशन के नाम से पुस्तक प्रकाशन का काम था उनकी बड़ी मदद की . उन्होंने बताया कि कैसे उन सरदार साहब को उर्दू के सिवा कोई और भाषा आती नहीं थी और उन्हें लिखने का बड़ा शौक था और उनके उर्दू लेखन को इन्होने हिंदी में लिखा था जिसे सरदार जी ने अपने प्रकाशन से प्रकाशित किया था . लेकिन शीघ्र ही मिर्जा साहब अपने जवानी के दिनों में खो गए एवं बताने लगे कि कैसे एक गुर्जर ने उनके कॉलेज में एक लड़की के गाल पर हाथ फेर दिया और कैसे उन्होंने उस गुर्जर लडके को एक ऐसा सपाटा मारा कि वह लड़का वहीँ गिर कर बेहोश हो गया. मिर्जा साहब पर उनके जवानी के दिन कुछ यूँ हावी थे कि वे उससे बाहर निकलने को तैयार ही नहीं थे . सारी लडकियाँ उनकी दीवानी थी और कॉलेज के प्रिंसिपल साहब बिना उनसे पूछे कोई भी बड़ा फैसला नहीं लिया करते थे. एक साठ पैंसठ साल के आदमी के द्वारा ये सारी बातें करना वह भी एक अजनबी के सामने मुझे बड़ी अजीब लग रही थी . लेकिन सामने जो सख्स बैठे थे वे उनकी बातों को बहुत ही गौर से सुन रहे थे मानो उनकी बात को अभी नोट बुक निकाल कर नोट कर लेंगे.
मिर्जा साहब की आत्म मुग्धता जारी थी . मैं अब किसी तरह वहां से पिंड छुड़ाना चाहता था . मेरी चाय ख़तम हुई और मैं झटके से उठ खड़ा हुआ . मिर्जा साहब अपने जवानी के किस्से में इतने मशगूल एवं गर्वोन्मत्त थे कि उन्हें मेरा उठ जाना अविश्नीय लगा. लेकिन मैं चले जाने को दृढ संकल्पित था . इस बीच सामने बैठे व्यक्ति जिन्होंने दाढ़ी रखी हुई थी चश्मा पहना हुआ था और देखने से मुसलमान प्रतीत हो रहे थे ने एक भी शब्द नहीं बोला था . मैंने चाय के पैसे देने के लिए अपनी जेब से बटुआ निकाला और पैसे निकालने लगा तो मिर्जा साहब ने कहा कि रहने दीजिये चाय के पैसे हम दे देंगे, लेकिन मैंने चाय के पैसे दुकानदार को दे दिए.
जब मैंने विदा लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो मिर्जा साहब ने कहा आइये आपको मिलवाते है उनसे जो मुग़ल खानदान से आते हैं और उन्होंने सामने बैठे दाढ़ी वाले व्यक्ति की और इशारा किया . मैंने उनसे पूछा “ अच्छा ! आप मुग़ल हैं ? इसपर उन्होंने कन्फर्म किया कि वे बहादुर शाह जफ़र के खानदान से हैं . मुझे वे दिलचस्प लगे और मैं दुबारा बैठा गया . मिर्जा साहब को मेरा बैठना बहुत ही प्रिय लगा . उन्होंने कहा “हम भी मुग़ल है ये बादशाह खानदान से हैं हम नवाबों के खानदान से . लेकिन फिर मिर्जा साहब ने बात भटका दी और बात अपनी और खींच कर ले गए जिसका मुख्य विषय था वर्तमान समय की मोदी की राजनीति और मिर्जा साहब की राजनैतिक पँहुच . लेकिन मेरी कोई भी दिलचस्पी अब उनकी बातों में नहीं थी और मैं दाढ़ी वाले व्यक्ति के बारे में जानने को उत्सुक था.
मैंने मिर्जा साहब की बात की और ध्यान नहीं देते हुए दाढ़ी वाले व्यक्ति से उनका नाम पूछा. उन्होंने अपना नाम बताया ..... “फैज़ुद्दीन ख्वाजा मोइउद्दिन बहादुर शाह तृतीय”
आपकी तरह मैंने भी बहादुर शाह द्वितीय तक का ही नाम सुना था.
“अच्छा तो आप बहादुर शाह तृतीय हैं” मैंने मुस्कुराते हुए पुछा. “हाँ मेरा राज्याभिषेक १९७६ में जयपुर के राज महल में हुआ था और उसमे इंदिरा गांधी भी शामिल हुई थी “ उन्होंने बताया . उस राज्याभिषेक में कई राजा महाराजा आये थे जयपुर की महारानी गायत्री देवी भी उस समारोह में मौजूद थी .
पूरी बात चीत के दौरान उन्होंने कई दिलचस्प बातें बतायी , जिसे जानना आपको भी रूचिकर लगेगा . उनके अनुसार १८५७ की लड़ाई मुग़लों ने अंग्रेजों से जीत ली थी. लड़ाई जीतने के बाद मुग़ल सैनिक रात में जब उत्सव मन रहे थे तो अंग्रेजी सेना ने उनको घेर लिया और उसमें बहुत सारे सैनिक मारे गए . इस तरह अंग्रेजों ने धोखे से मुग़लों को हरा दिया एवं बहादुर शाह जफ़र कैद कर लिए गए. १८५७ की लड़ाई की कहानी तो हम सभी जानती हिन् हैं , कभी न कभी किताबों में हम सब ने पढ़ी ही है . मेरी उत्सुकता यह जानने में थी कि उसके बाद क्या हुआ . उन्होंने बताया कि १८५७ के बाद उनके पूर्वज कर्नाटक के धारवाड़ चले गए और वहीँ रहने लगे. उन्हें आज़ादी के बाद पेंशन भी मिलती रहती , जिसे बाद में सरकार ने बंद कर दिया था.
“आप क्या करते हैं “ मैंने उत्सुकता वश पूछ ही लिया , दरअसल मेरे मन में था कि जब ये लोग धारवाड़ चले गए तो वहां की जमीन जायदाद अभी भी काफी होगी.
“मैं पत्रकार हूँ “ उन्होंने कहा .
“किस अख़बार में ?“
“नहीं मैं स्वतंत्र पत्रकार हूँ और यहाँ एक भाड़े के कमरे में रहता हूँ”
इस बीच में जब भी मिर्जा साहब ने बात चीत को अपनी ओर मोड़ने का प्रयास किया मैंने उनकी बात को तवज्जो नहीं देते हुए अपना ध्यान इस मुग़ल खानदान के चश्मो चराग की और ही रखा .
उन्होंने बताया कि जब भारत आज़ाद हो रहा था तो अंग्रेजों ने इनके खानदान के ज़हीरुद्दीन एवं ख्वाज़ा मोइउद्दिन को दिल्ली की सत्ता सौंप देने के लिए बुलाया पर कांग्रेस के नेताओं के द्वारा उन लोगों को दिल्ली नहीं जाने की सलाह की दी गयी और इस प्रकार वे दिल्ली की सत्ता वापस पाने से वंचित रह गए. इस प्रकार बहादुर शाह तृतीय को अनेक तरह की शिकायतें थी और अपनी शिकायतों को वे बड़ी गंभीरता से प्रकट कर रहे थे. उन्होंने बताया कि इंदिरा गाँधी से उनके अच्छे सम्बन्ध थे एवं इंदिरा गाँधी नै उनको खान की उपाधि प्रदान की थी .
मेरे पास उनकी बात से असहमत होने की कोई वजह नहीं थी और उनकी बात से सहमत होने का कोई आधार भी नहीं , पर कुल मिलाकर बहादुर शाह तृतीय अत्यंत दिलचस्प व्यक्ति लगे ..
इन सब बातचीत के बीच रात के साढ़े आठ बज चुके थे और अब मुझे होटल के लिए निकलना भी जरूरी था . मैंने फिर से विदा ली और वापस अपने होटल आ गया .
#neeraj_kumar_neer
बहुत खूब ... रोचक और कहने का अंदाज बहुत खूबसूरत है आपकी बात का ...
ReplyDelete.सत्य कथन .
ReplyDeleteआपको नए साल की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं
बहुत ही अच्छा article है। .... Thanks for sharing this!! :)
ReplyDeleteअप्रतिम। बहुत ही खूब। बहुत ही दिलचस्प शैली है आपकी। साधुवाद
ReplyDeleteIt was very useful for me. Keep sharing such ideas in the future as well. This was actually what I was looking for, and I am glad to came here! Thanks for sharing the such information with us.
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