उडो तुम
उडो व्योम के वितान में.
पसारो पंख निर्भय .
अश्रु धार से
नहीं हटेगी चट्टान
जो है जीवन की राह में ,
मार्ग अवरुद्ध किये,
खुशियों की .
गगन की ऊंचाई से
सब कुछ छोटा लगता है.
और तुम बड़े हो जाते हो.
गुनगुनाओ कि
गुनगुनाने से जन्मता है
राग
मिटता है राग .
सप्तक के गहन सागर में
जब सब शून्य हो जाता है
अस्तित्व का आधार भी और
होता है, सिर्फ आनंद.
बिस्तर की नमकीन चादर को
धुप दिखा कर
फिर टांग दो परदे की तरह
अपने और दुखों के बीच ..
#neeraj_kumar_neer
...... नीरज कुमार ‘नीर’
चित्र गूगल से साभार ..
बहुत बढ़िया,सुंदर भाव !
ReplyDeleteRECENT POST : मर्ज जो अच्छा नहीं होता.
बहुत सुंदर ...गहरे भावों और सकरात्मक उर्जा सी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुन्दरम
उत्साह भरती पंक्तियाँ
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना की ये चन्द पंक्तियाँ.........
ReplyDeleteउडो तुम
उडो व्योम के वितान में.
पसारो पंख निर्भय .
अश्रु धार से
नहीं हटेगी चट्टान
बुधवार 02/10/2013 को
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
को आलोकित करेगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!
आभार आपका ..
Deleteक्या बात है...
ReplyDeleteसुंदर भाव।
मित्र ! गान्धी जयन्ती /लाल बहादुर शास्त्री-जयंती की अग्रिम वधाई हम बढ़ाएँ एक क़दम
ReplyDeleteस्वस्थ 'गान्धी-वाद' की ओर !
अथ आप की रचना उत्साह वर्द्धक है !
बहुत खूब लिखा है | मैंने आपका ब्लॉग फॉलो कर लिया है | आप भी पधारें |
ReplyDeleteमेरी नई रचना :- जख्मों का हिसाब (दर्द भरी हास्य कविता)
सुंदर.....खुबसूरत रचना......
ReplyDeleteजब सब शून्य हो जाता है
ReplyDeleteअस्तित्व का आधार भी और
होता है, सिर्फ आनंद.
बिस्तर की नमकीन चादर को
धुप दिखा कर
फिर टांग दो परदे की तरह
अपने और दुखों के बीच ..
बहुत सुन्दर सार्थक लेखन सशक्त बिम्ब विधान।
(,टांग ,धूप )
उड़ो तुम
नीरज नीर
बहुत सुन्दर लिखा है आपने. वाकई आंसुओं के धार बेकार ही जाती हैं अक्सर. राम भी सेतु निर्माण अनुनय-विनय करके कहाँ कर पाए थे. वहीँ तलवार का तेज देखकर ही रुद्ध मार्ग अपने आप खुल जाते हैं.
ReplyDeleteआभार सरिता जी
ReplyDeleteसादर अभिवादन
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत प्रेरक रचना |
बहुत खूब |
“महात्मा गाँधी :एक महान विचारक !”
ati sundar rachna ... prerak bhi badhayi evam shubhkamnaye
ReplyDeleteवाह !!! बहुत ही बढ़िया रचना !
ReplyDeletewaah sundar rachnaa..prerak ...
ReplyDeleteदुक्खों को भूलना परिश्रम कर के संभव है ... स्वयं को इतना ऊंचा उठाना होगा की दुख की परछाई भी दिखाई न दे ... फिर बस परम आनंद ही है ...
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना ...
बहुत सुन्दर रचना नीरज जी !
ReplyDelete
ReplyDeleteहार्दिक बधार्इ स्वीकारें, आदरणीय। सादर,
बहुत खूब ...ये पंक्तियाँ मुझे बस भा गयीं 'राग' के दो अर्थों का कितना सुंदर प्रयोग किया है इनमे आपने .....बहुत ही सुंदर
ReplyDelete"गुनगुनाओ कि
गुनगुनाने से जन्मता है राग
मिटता है राग "