सितारों से सजे
बड़े बड़े होटलों में,
बड़े बड़े होटलों में,
नरम नरम गद्दियों वाली
कुर्सियां,
करीने से सजी मेजें,
मद्धिम प्रकाश,
अदब से खड़े वेटर,
खूबसूरत मेन्यू पर दर्ज,
तरह तरह के नामों वाले
व्यंजन,
खाते हुए फिर भी
स्वाद में
कुछ कमी सी रहती है.
कुछ कमी सी रहती है.
याद आता है
माँ के हाथों का खाना
माँ के हाथों का खाना
खाने के साथ
माँ परोसती थी
प्यार..
माँ परोसती थी
प्यार..
....नीरज कुमार ‘नीर’
neeraj kumar neer
आभार आपका मान्यवर....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुन्दर एवं सार्थक प्रस्तुति नीरज जी
ReplyDeleteसुंदर रचना.
ReplyDeleteसही है, माँ माँ ही होती है. माँ की बराबरी कोई नही कर सकता.
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteमाँ। यहाँ तो कवियों की कलम रुक सी जाती है पर अपने लिखा..बेहतरीन। जैसे दिल की बात अपने छीन ली हो
ReplyDeleteउस हाथ का क्या कहना. एक बार माथे पर जो पड़ जाए. और खाने की बात तो निराली है ही. सुन्दर रचना.
ReplyDeleteLovely blog you havve here
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