वह चालीस के आस पास की रही होगी। रंग सांवला पर आकर्षक गठा हुआ शरीर। मांसल शरीर सहज ही किसी को आकर्षित कर सकता था। सहज रूप से मुँहफट “रमेशर वाली” का असली नाम तो किसी को पता नहीं था पर उसके पति का नाम रमेशर होने के कारण जब से गाँव में ब्याह कर आई थी सबके के लिए रमेशर वाली ही थी।
यह विडम्बना ही है कि गांव में ब्याह कर आने के बाद स्त्री का कोई अपना नाम नहीं रह जाता है. यह दरअसल स्त्री से उसकी पहचान छीन लेने की पुरुष सत्ता के द्वारा रची गयी एक सामाजिक साजिश ही है. जिसका कोई नाम ही नहीं होगा उसकी पहचान कैसी? वह सदा सदा अपने पति के नाम से जानी जाती रहेगी एवं पराश्रित ही रहेगी.
रमेशर वाली बरसात के बादल सी थी अलमस्त घूमती फिरती. किसी को मदद चाहिए रमेशर वाली हाजिर. सर्दी, गर्मी, बरसात हमेशा जब किसी को काम पड़ जाए, रमेशर वाली याद कर ली जाती. रमेशर वाली ने भी कभी किसी को निराश नहीं किया. किसी की बेटी की शादी में गीत गाना हो या किसी के घर में बरी, तिलौरी बनाना हो, रमेशर वाली सबसे आगे रहती और इसीलिए वह गाँव भर की औरतों की चहेती थी. किसी के घर बच्चा पैदा हो तो सोहर गाने के लिए रमेशर वाली को बुला लिया जाता. रमेशर वाली बिना माइक के ही इतने ऊँचे सुर में गाती कि मुहल्ले भर को उसका गाना सुनाई देता .
ऐसा नहीं है कि वह सिर्फ गाँव की औरतों की ही चहेती थी, चहेती तो वह गाँव के पुरुषों की भी थी. गांव के पुरुष भी उसको देख कर लम्बी सांसे भरने लगते. हालाँकि जब कभी किसी ने उससे कोई मज़ाक कर दिया तो वह शरमा कर भागती नहीं थी बल्कि पलट कर ऐसा जवाब देती कि मजाक करने वाला दूबारा मजाक करने की हिम्मत ना करे. लेकिन गाँव के पुरुष भी गाँव की सामाजिक मर्यादा को समझते थे एवं हँसी-मज़ाक की लक्ष्मण रेखा का कभी किसी ने उल्लंघन नहीं किया.
उसका पति रमेशर कलकत्ता में कमाता था। शायद टैक्सी चलाता था। गाँव में माँ और बेटा ही रहते थे। बेटा सुरेन्द्र छोटी उम्र से कमाने कजाने में लग गया था। वह एक फेरी वाले के साथ घूम घूम कर कपड़ा बेचता था। इस प्रकार सुरेन्द्र जब सुबह सुबह फेरी पर निकल जाता तो दिन भर रमेशर वाली को करने के लिए कोई अपना काम नहीं रहता। सुबह सबेरे सुरेन्द्र के लिए नाश्ता तैयार करती तो अपने लिए दोपहर हेतू चार रोटियाँ अतिरिक्त बना लेती। उसके बाद पूरे दिन उसे अपने घर में कोई काम नहीं रहता। कभी मुफ्त में इसका धान फटक देती तो कभी उसका गेंहू चुन कर साफ कर देती, लेकिन पूरे समय उसकी बकर-बकर चालू रहती ...... हमेशा हँसती खिलखिलाती रमेशर वाली, सबसे मज़ाक करती रहती । हमेशा जिंदा दिल।
सालों भर उसकी यही दिनचर्या रहती. कभी अपने मायके भी जाती तो एक दो दिन में ही लौट आती. ना उसके बिना गाँव की महिलाओं का जी लगता था और ना गांव के बिना उसका जी कहीं लगता था.
रमेशर वाली का घर मिट्टी का बना था. वह अपने घर को बहुत साफ़ सुथरा रखती थी . साफ सुथरा चिकना घर। गोबर से लीपा ओसारा। दिन में उसके घर के दरवाजे पर हमेशा ही ताला लटका रहता. इसका कारण शायद यह था कि अहले सुबह नाश्ता बनाकर खा लेने के बाद उसे घर में कोई काम बचता नहीं था । उसके बाद पूरे गाँव की सेवा टहल में लगी रहती।
कभी कभी उसका पति गाँव आता था. गाँव में रहने के दौरान वह अक्सर खेतों में बकरियाँ चराता. वह काला रंग का एक दुबला पतला आदमी था एवं उसका पेट धंसा हुआ था. देखने में वह अपनी पत्नी से बड़ा एवं बूढ़ा लगता था। एक नीली रंग की लूँगी एवं सफ़ेद गंजी पहने वह दिन भर कभी इस खेत तो कभी उस खेत में बकरियों को घुमाता रहता। अपनी बकरियों को खाली खेत के बीचो बीच लम्बी रस्सी से बांध कर वह निश्चिन्त होकर चुपचाप एक किनारे बैठा रेडियो सुनता रहता. बकरियां गोल गोल घूम कर पूरे खेत का घास चरती रहती. गर्मियों में वह अक्सर छाता लगा कर खेत की मेड़ पर बैठता था। कभी उसे अपनी पत्नी के साथ घूमते फिरते नहीं देखा गया था। गाँव में वैसे भी कौन पति अपनी पत्नी को साथ लिए घूमता है? पर बाज़ार एवं चिकित्सा आदि की जरूरतों के लिए भी कभी रमेशर वाली एवं उसके पति को कहीं साथ में आते जाते नहीं देखा गया.
एक बार होली का अवसर था। गर्मी अपनी तरुणाई में प्रवेश कर चुकी थी. वातावरण में उल्लास था. गेहूं और चने की बालियाँ पक चुकी थी एवं खेतों में ऐसा प्रतीत होता था मानो सोने की चादर बिछी हो. सभी लोग होली खेलने में व्यस्त थे. धूरखेली के बाद कोई ग्यारह बारह बजे गाँव के लोग नहाने धोने में व्यस्त थे . बच्चे रंग खेलने में लगे थे.. तभी गाँव के दो गुंडे सतीश और दिनेश रमेशर वाली के घर में घुस आये. दोनो आवारा एवं एक नंबर के शराबी थे. दोनो की उम्र करीब अट्ठाईस – तीस बरस के आसपास की थी एवं वे मजबूत कद काठी के थे. जब तक इनके बाप जीवित थे, बाप की कमाई पर आवारागर्दी करते रहे और अब पुरखों की संपत्ति बेच रहे थे।
समाज में कुछ पुरुष अभी भी ऐसे हैं, खासकर गांवों में जिनके लिए घर से बाहर निकलने वाली स्त्रियाँ, सबसे हँसने बोलने वाली स्त्रियाँ कुलटा एवं चरित्र हीन होती हैं. सतीश एवं दिनेश भी ऐसी ही मानसिक विकृति से पीड़ित थे.
रमेशर वाली घर में अकेली थी. उसका पति कलकत्ता में था एवं बेटा सुरेन्द्र कहीं खेलने में व्यस्त था. वह अपने बेटे के लिए होली के अवसर पर कुछ विशेष खाना बना रही थी. ऐसा अवसर बहुत कम होता था जब उसे अपने बेटे के लिए कुछ बनाने का अवसर मिलता था. ज्यादातर तो वह सुबह सात बजे ही अपने फेरी के काम से निकल जाता था. अचानक से सतीश ने उसको पीछे से पकड़ लिया. यह तो साफ़ ही था कि दोनों के इरादे नेक नहीं थे. दोनों उसके साथ जबरदस्ती करने का प्रयत्न करने लगे.
थोड़ी देर के बाद अचानक से हुए शोर गुल ने सबका ध्यान खींचा . चूल्हे पर पकवान तल रही स्त्रियाँ चूल्हा छोड़कर बाहर आ गयी, आराम फरमाते या नहाते पुरुष भी दौड़े आये. लोगों ने देखा कि दोनों बदमाश युवक बदहवाश भागते चले आ रह हैं और उनके पीछे रमेशर वाली हाथ में लकड़ी काटने वाली कुल्हाड़ी लिए दौड़ी आ रही है. उसके कपड़े फटे थे एवं साड़ी खुल चुकी थी . वह पेटीकोट और ब्लाउज पहने थी . चोट लगने के कारण उसकी जीभ कट गयी थी एवं जीभ से खून रिस रहा था. वह साक्षात् चंडी प्रतीत हो रही थी. उसके आँखों से खून टपक रहा था. वह क्रोध की अग्नि में धधक रही थी. साफ़ साफ़ लग रहा था कि इन गुंडों ने उसके साथ गलत करने की कोशिश की थी जिसका उसने विरोध किया था एवं टांगी लेकर उनको मारने के लिए उतारू हो गयी थी. स्त्रियाँ ऐसे तो निर्बल एवं ममतामयी प्रतीत होती हैं लेकिन अगर वे बदला लेने के लिए उद्धत एवं हिंसक हो जाए तो वे पुरुषों से अधिक सबल हो जाती हैं.
उस खुले से जगह में स्त्री पुरुषों की भीड़ इकट्ठी हो गयी थी. बच्चे भी खेल छोड़ कर वहां जमा हो गए . उस जगह के चारो ओर घर थे एवं बीच में एक खुली जगह थी. जो नव वधुएँ घर से बाहर नहीं आ सकती थीं वे खिडकियों पर आ गयीं.
स्त्री पुरुषों की भीड़ देख कर दोनों गुंडों को हौसला हुआ, उन्होंने सोचा कि वे लोग उनकी तरफ होंगे एवं उनकी मदद करेंगे. आखिर वे उनकी जाति वाले थे. वे रुक गए एवं रमेशर वाली के चरित्र पर लांछन लगाते हुए एवं भद्दी गालियां देते हुए उससे टांगी छीनने का प्रयत्न करने लगे. लेकिन रमेशर वाली तो चंडी बन चुकी थी. वह कहाँ उनके वश में आने वाली थी. लेकिन इसी बीच जो हुआ उसकी कल्पना उन गुंडों ने नहीं की थी. गाँव की औरतें रमेशर वाली का पक्ष लेते हुए उन गुंडों पर टूट पड़ी. जिसके हाथ में जो लगा उसी से उनकी पिटाई करने लगी. कोई लकड़ी से, कोई चप्पल से तो कोई खाली हाथ से भी उन गुंडों पर पिल पड़ी. जब घर की औरतें किसी की ठुकाई पिटाई कर रही हों तो पुरुष चुप कैसे रहते . वे भी उन गुंडों की पिटाई करने लगे. पांच मिनट की पिटाई के बाद ही उन गुंडों की हालत सड़क पर दुर्घटना में घायल कुत्ते जैसी हो गयी. वे हाथ जोड़ कर माफ़ी मांगने लगे, रमेशर वाली के पैर पकड़ लिए. लोगों ने समझा बुझा कर रमेशर वाली के हाथ से कुल्हाड़ी लिया और उसे उसके घर तक पहुंचाया. थाना में केस हुआ और दोनों गुंडे जेल भेज दिए गए. जेल से जमानत पर रिहा होने के बाद दोनों गुंडे सतीश एवं दिनेश गाँव से बाहर कहीं कमाने चले गए। उस दिन की पिटाई और जेल जाने के बाद गाँव में रहने की उनकी हिम्मत नहीं रह गयी थी. यह नारी शक्ति की जीत थी. यह गाँव की महिलाओं की जीत थी कि उनकी सामूहिक शक्ति ने बलात्कार का प्रयास करने वाले गुंडों की न केवल पिटाई की बल्कि उन्हें जेल भी भिजवा दिया.
लेकिन इस घटना के बाद रमेशर वाली बुझी बुझी सी रहने लगी. शादी, ब्याह, मुंडन आदि में गला फाड़ कर माइक पर गीत गाने वाली, नेग के लिए सौ सौ हुज्जतें करने वाली आवाज़ ने ख़ामोशी अख्तियार कर ली थी. वह अब किसी के यहाँ नहीं आती जाती थी. चुपचाप अपने घर में पड़ी रहती थी. गांव की शादियाँ सूनी होने लगी. सब उससे मिन्नतें करते पर वह तो मानो बर्फ की सिल्ली बन गयी थी. उसके घर के ओसारे में कूड़ा पड़ा रहता, मानो वहां कोई रहता नहीं हो. कई कई दिनों तक वह घर में झाड़ू नहीं लगाती. उसके जीवन से आनंद कहीं खो गया था.
उसके पति ने, जिसे अपनी बहादुर पत्नी की उसके हिम्मत और संघर्ष के लिए सराहना करनी चाहिए थी, उस पर नाज़ होना चाहिए था, उसका साथ छोड़ दिया. इस बार जब वह कलकत्ता गया तो वापस नहीं लौटा. कई लोगों से सुना गया कि उसने वहीँ किसी दूसरी औरत से शादी कर ली थी.
इसी दौरान उसका बेटा सुरेन्द्र भी गाँव छोड़ कर कहीं चला गया। उसे शायद यह लगता था कि जो कुछ हुआ उसमे उसकी माँ की ही गलती है . अब वह बाहर कहीं कोई व्यवसाय करने लगा था।
उसे लगता था कि अपने पति और बेटे के लिए वह एक ऐसे दोष की दोषी थी, जिसे उसने किया ही नहीं था. जिसका उसने बहादुरी से प्रतिवाद किया था और जिसके लिए वह प्रसंशा की हक़दार थी. उसका दोष शायद सिर्फ यही था कि वह एक औरत थी.
रमेशर वाली एक बहादुर औरत थी . वह सारी दुनियां से लड़ लेती. बड़े से बड़े तूफानों के आगे पर्वत की तरह अविचल खड़ी रह सकती थी. लेकिन अपने पति और बच्चे का वह क्या करती. उन्हें कैसे समझाती. पूर्वाग्रही एवं दुराग्रही मानसिकता से ग्रसित अपने पति और बेटे के सामने वह लाचार हो गयी. वह एक ममतामयी माँ थी. उन दो गुंडों सतीश और दिनेश से वह अकेले निबट सकती थी लेकिन अपने कलेजे से कोई भला कैसे निबटे. वह टूटती चली गयी
रमेशर वाली को जो देखता उसका कलेजा धक से बैठ जाता. जीवन से भरी हुई, सदा हँसती, गाती, मुस्कुराती रमेशर वाली अचानक से बूढ़ी लग रही थी। मानो किसी ने चंचला नदी के प्रवाह को रोक दिया हो और उसके पानी में काई पड़ गयी हो. वह विधवा की तरह सफ़ेद धोती को साड़ी की तरह शरीर पर लपेट कर पहनती. कुछ महीनों में लगता था उसने कई वर्षों की यात्रा कर ली हो। मानो किसी खिले हुए फूल के बाग़ को पागल हाथियों ने रौंद दिया हो। उस घटना के बाद रमेशर वाली ने कभी ब्लाउज नहीं पहना और एक विधवा की तरह ही जीवन जीती रही।
रात में कभी कभी जोर से उसके रोने की आवाज आती. और उसके बाद वह सिसकते हुए गाती “कौने चोरवा नगरिया लूटले हो रामा”. गाँव की स्त्रियाँ उसके बाद बेचैन होकर उठ बैठती.
#नीरज नीर
(अक्षर पर्व के मार्च २०१८ अंक में प्रकाशित )
painting courtsey : ishrat humairah