मुर्दों की बस्ती में
जीवन तलाश रहा हूँ
नंगे हाथों से
पत्थर तराश
रहा हूँ.
मेरे हाथ लहूलुहान हैं
मूझे गम नहीं है
मेरा हौसला यारों
मगर कम नहीं है.
अपने हौसलों से
मुर्दों में जान फुकुंगा
जब तक सफल नहीं होता
तब तक नहीं रुकुंगा
तपती दुपहरी है
सामने सहरा है
जुबां पर भी मेरे
हुकूमत का पहरा है.
पावों में छाले हैं
ओठ प्यासे हैं
हाकिमों के पास
झूठे दिलासे
है .
हर कदम पे सफलता की
नई इबारत लिखूंगा
बीच राहों में मगर
नहीं कभी रुकूंगा.
.......... नीरज कुमार 'नीर'