सुबह होते ही शाम हो जाती है,
कहानी शीर्षक में तमाम हो जाती है.
जिंदगी मुठ्ठी में रेत सी फिसलती है,
उमर रोटी के नाम हो जाती है.
एक टुकड़ा रोशनी की तलाश में,
जवानी अँधेरे में गुमनाम हो जाती है.
क्लबों में पार्टियों का जोर होता है,
झोपड़ियों में रोटी हराम हो जाती है.
कोई खा खा के मरता है
यहाँ,
भूख किसी के मौत का सामान हो जाती है.
लोक शाही के सरकारी बंगले में,
हुकूमत बेफिक्र इत्मिनान हो जाती है.
“नीरज
कुमार”
बहुत अच्छी तरह से अपनी बात कही है आपने , एक एक पंक्ति सजीव है |
ReplyDeleteसादर
बहुत आभार आकाश जी ..
ReplyDeletepowerful!!
ReplyDeletelike
ReplyDeleteShukriya Mahesh ji.
Deleteachi rachna hai...
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