Tuesday, 23 April 2013

संग राह भी चलती रही

मैं चलता रहा, संग राह भी चलती रही.
यूँ मंजिल ना मिली तमाम उम्र भर.

तीरगी और रौशनी में यूँ तो जंग मुसलसल है.
जलाता रहा चराग मैं तमाम उम्र भर .

नेकी की  जहां भी,  सिला ही मिला ,
होता रहा यूँ ही मैं बदनाम उम्र भर.

तस्वीरे जिंदगी कभी रंगीन ना हुई,
भरता रहा रंग इनमे नाकाम उम्र भर.

मैं खोया रहा गुमनामियों में अकेले ही.
वो सुर्ख़ियों में रहे पढ़कर मेरा कलाम उम्र भर.
................... नीरज कुमार ‘नीर’ 

तीरगी : अँधेरा
मुसलसल: लगातार 

7 comments:

  1. मकता बेजोड़ है. आजकल सही अर्थ में मौलिक कृतियाँ कम ही देखने को मिलती हैं.

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  2. बहुत खूब... शुभकामनायें

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  3. अंधेरे ओर रौशनी की जंग तो हमेशा चलती रहती है ...
    बाखूबी लिखा है गज़ल में ...

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  4. last two lines presenting true picture of present age.

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आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मूल्यवान है. आपकी टिप्पणी के लिए आपका बहुत आभार.

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