Saturday, 12 December 2015

दिसंबर की धूप

दिसंबर की ठंढ
समा जाती है नसों के भीतर...
और बहती है लहू के साथ साथ......
पूरे शरीर को भर लेती है
अपने आगोश में .....
जम जाते हैं वक्त के साये भी
बेहिस हो जाती है हर शय
हरसू गूँजती है
ठंडी हवा की साँय साँय ....
ऐसे में तुम याद आती हो
बारहा .......
आ जाओ न तुम
लेकर अपने आगोश में
अधरों से छूकर
भर दो  उष्णीयता से
रोम रोम खिल जाए
पीले सरसो के फूल की तरह
आँखों में उतर आई ओस की बूंदे
हो जाए उड़नछू
सच , फिर कहीं रह न जाये बाकी
नामो निशां ढंढ की
आ जाओ न तुम
दिसंबर की धूप की तरह
............ neeraj kumar neer
#neeraj_kumar_neer 

4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (13-12-2015) को "कितना तपाया है जिन्दगी ने" (चर्चा अंक-2189) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुन्दर रचना

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  3. मीठी मीठी ठण्ड में मीठे मीठे शब्द !! शानदार प्रस्तुति कविवर नीर जी

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आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मूल्यवान है. आपकी टिप्पणी के लिए आपका बहुत आभार.

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