जब तुम बुझा रहे थे
अपनी आग,
मै जल रही थी.
मैं जल रही थी पेट की भूख से
मैं जल रही थी माँ
की बीमारी के भय से
मैं जल रही थी
बच्चों की स्कूल फीस की चिंता से .
जब तुम बुझा रहे थे
अपनी आग,
मै जल रही थी.
*******
मैं बाहर थी
जब तुम अंदर थे।
मैं बाहर थी
हलवाई की दुकान पर
पेट की जलन मिटाने
के लिए
रोटियां खरीदती हुई.
मैं बाहर थी ,
दवा की दुकान पर
अपनी अम्मा के लिए
जिंदगी खरीदती हुई .
मैं बाहर थी
बच्चों के स्कूल में
फीस जमा करती हुई .
मैं बाहर थी
जब तुम अंदर थे
अभिसार की उत्तेजना
से मुक्त.
अपनी नग्नता से
बेखबर
मैं बाहर थी !!!!
.................
नीरज कुमार ‘नीर’
#neeraj_kumar_neer
#neeraj_kumar_neer
बहुत ही सुंदर यथार्थ पूर्ण रचना,,,बधाई नीरज जी,,,
ReplyDeleteहोली की हार्दिक शुभकामनायें!
Recent post: रंगों के दोहे ,
वक़्त कौन कौन सी परिस्थियों से हमें गुजरने को मजबूर करती है. अपनी तृप्ति के सामने दूसरी तरफ का दर्द कहाँ देख पाते हैं. साहिर ने बिलकुल ठीक ही लिखा था-
ReplyDeleteजो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है
जो साज़ पे गुजरी है वो किसको पता है
बहुत सुन्दर भाव सजोये सुन्दर रचना
ReplyDeletelatest post भक्तों की अभिलाषा
latest postअनुभूति : सद्वुद्धि और सद्भावना का प्रसार
बहुत सुन्दर ...नीरज जी ..
ReplyDeleteपधारें " चाँद से करती हूँ बातें "
बहुत बढ़िया,
ReplyDelete