Friday, 9 March 2012

कृषक




 अमिय, सुधा उपजाने वाला
नित्य हलाहल पीता है,
देख! कृषक भारत का
किस हाल में जीता है.
ओजहीन मुख गाल धसा है,
वक्ष के नीचे 
पेट फंसा है.
वस्त्र फंटे हैं
बालों में तेल नहीं
यह व्यवस्था का दोष है
विधाता का कोई खेल नहीं.
खेतों की  दरारें
कृषक के पांव तक
बढ़ गयी है
उसके पैरों में भी
देखो! बिवाई पड़ गयी है.
चूल्हे में धूम नहीं
खुशियाँ गुम कहीं ,
कभी दुर्भिक्ष, कभी बाढ़
का भय होता है .
अमिय, सुधा उपजाने वाला
नित्य हलाहल पीता है,
देख! कृषक भारत का
किस हाल में जीता है.
पेट भरने वाले
भूखे पेट सोते हैं,
जठरानल में जलते बच्चे
आधी रात को रोते हैं.
सूख गए खेतों में बिचड़े
उगने से पहले
मिट गए उसके भी सपने
पलने से पहले
बहुत मजबूर होकर
किसी हाल में जीता है
हारकर ही वह
कर्ज का विष पीता है.
****
कौन लटका है उधर
पीपल के पेड़ पर
गले में फन्दा डालकर
लो सो गया वह
चिर निद्रा में निडर
पीपल की  छांव में
अब नहीं सताएंगी उसे
आए, कोई भी विपत्ति
चाहे उसके गांव में.
.....नीरज कुमार 'नीर'

3 comments:

  1. सुंदर प्रस्तुति.

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  2. जो सबका पेट भरता है वही दुर्दशा में रहता है ... विडंबना है देश की ...

    ReplyDelete
  3. पेट भरने वाले
    भूखे पेट सोते हैं,
    जठरानल में जलते बच्चे
    आधी रात को रोते हैं.
    सुख गए खेतों में बिचड़े
    उगने से पहले
    मिट गए उसके भी सपने
    पलने से पहले
    बहुत मजबूर होकर
    किसी हाल में जीता है
    एकदम सही और सार्थक शब्द लिखे हैं आपने

    ReplyDelete

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