कमरे के छोटे दरीचे से,
उतरती शाम की पीली धूप
हो गयी मेरे वजूद के आर पार.
मेरे जज्बातों को सहलाती हुई.
कमरे के बाहर हिली कुछ परछाई सी,
बिम्बित हुआ कुछ स्मृति के दर्पण में,
कुछ स्मृतियाँ रहती है,
मन के हिंडोले में अविछिन्न , अविक्षत.
दीवार पे टंगी......शीशे में मढी तस्वीर,
मकड़ी ने डाल दिए हैं जाले,
पीली धुप दमक रही है,
तुम्हारी मुस्कान अनवरत है.
खुले आंगन से झाकता अम्बर,
तुम्हारी तलाश में
खंगालता है, हरेक कोना,
अपनी विफलता पर आहत है.
पुराने घर में ढलती
उदास सी शाम.
तालाब के शांत जल में
किसी ने फेंका है पत्थर.
........नीरज कुमार ‘नीर’
dil k jharokhe se yaadon ki shaam utri hai...utri hai phir tera le k aaj naam utri hai....bahut khoobsurat kavita hai....shabd nahin hai mere paas tareef k liye...mujhe aapki rachnayen bahut pasand aayi. isliye meine aur zada padhne ko blog join kiya :) aap bahut achhe kavi hain...hum achhe shrota bhi prove honge :)
ReplyDeleteदिल के झरोखे से यादों की शाम उतरी है,
ReplyDeleteउतरी है फिर तेरा ले के आज नाम उतरी है.
वाह! बहुत खूब.
शैली जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद, आपके के कमेन्ट ने उत्साह से लबरेज कर दिया है. मेरी निरंतर कोशिश होगी कि अच्छी कविताएँ प्रस्तुत कर सकूँ, आपसे निरंतर स्नेह अपेक्षित है. आप स्वयं बहुत अच्छा लिखती है. आपका बहुत आभार.