अपनों को खोके बहुत रोता
है आदमी
यादों के जब बोझ को ढोता है आदमी
रिश्ते जो हो न सके कामयाब
सफ़र में
करके याद उन्हें दामन भिगोता है
आदमी
पहले काटता है पेड़, जलाता है जंगलात ,
एक टुकड़ा छांव को फिर रोता
है आदमी .
बोया पेड़ बबूल का तो आम
कहाँ से होय,
पाता वही वही है जो बोता
है आदमी ..
......... नीरज कुमार
‘नीर’
बहुत अच्छी रचना.....
ReplyDeleteसच ही है जो हम बोते हैं वही तो काटते हैं ...
सुंदर रचचना...
ReplyDeleteसादर।
बहुत खूब..सुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना.....
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना.....
ReplyDeleteपहले काटता है पेड़, जलाता है जंगलात ,
ReplyDeleteएक टुकड़ा छांव को फिर रोता है आदमी
बहुत सुन्दर शेर कहा है आपने.
बहुत अच्छे!
ReplyDeleteजंगल की डेमोक्रेसी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना !
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पहले काटता है पेड़, जलाता है जंगलात ,
ReplyDeleteएक टुकड़ा छांव को फिर रोता है आदमी ...
बहुत खूब .. अपने कर्मों के फल को ही भोगता है आदमी ... सुन्दर गज़ल ... नायाब शेर लिए ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeletebahut hi badhiya.
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