सांझ ढली
कुछ टूटा ,
भर गयी रिक्तता.
सब मूंद दिया कसकर.
अन्दर बाहर अब है,
एक रस.
घुप्प अँधियारा.
दिवस का सब्जबाग,
छुप गया तमस के आवरण में.
धवल रश्मि, तुम्हारा सौंदर्य ...
अब है बेमोहक, बेमतलब , अर्थ हीन
अब मैं पराभूत नहीं,
नहीं परावश...
#neeraj_kumar_neer
... नीरज कुमार ‘नीर’
वाह वाह
ReplyDeleteवाह ... अब इन सब बातों से ऊपर उठ कर गहरे सत्य के सामना हुआ है अब में परब्भूत नहीं ... बहुत ही लाजवाब भावाव्यक्ति ...
ReplyDeleteशुभदीपावली,गोवर्धन पूजन एवं यम व्दितीया श्री चित्रगुप्त जी की पूजन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें स्वीकार करें
ReplyDeleteवाह नीरज जी,
ReplyDeleteकमाल की प्रस्तुति.....
आपकी इस प्रस्तुति को आज की बुलेटिन भाई दूज, श्री चित्रगुप्त पूजा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteछठ पर्व की पावन बधाई
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता मेरे भी ब्लॉग पर आयें
गहराई से निकले भाव. शायद यह अनुभूति किसी ना किसी रूप में सबको होता है.
ReplyDeleteSindar bhav.. Sumdar abhivyakti.
ReplyDeleteभावो का सुन्दर समायोजन......
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना , नीरज भाई
ReplyDeleteनया प्रकाशन --: जानिये क्या है "बमिताल"?
khubsurat rachna / neeraj ji
ReplyDeletemy letest post ---Sowaty Pratibha कबीर/ग़ालिब(1-4)