Friday, 4 April 2014

दोरंगी नीति


उसने मारा,
उसने लूटा,
हम चुप थे.
उसने तोड़ा ,
छीना जब जो चाहा .
धर्म , अस्मिता, मान 
और वो सब कुछ 
जो उसे भाया ,
जी में आया,
हम चुप थे.
हमारी चुप्पी,
उनका अधिकार . 
हमारी नियति 
सहना अत्याचार. 
एक दिन लगा दी ठोकर 
हल्की सी .
यद्यपि चुंका नहीं था  धीरज
भरा था, अभी भी ,
लबालब, सागर सहिष्णुता का..
वे लगे चिल्लाने 
कहने लगे
उनके साथ हुआ है जुल्म,
उनकी चिल्लाहट में,
बार बार के झूठ में,
गुम हो गए 
उनके सारे गुनाह,
हमारे भाई, पडोसी सब चिल्लाने लगे, 
मिलाकर उनके साथ सुर
हाँ, हाँ उनके साथ जुल्म हुआ है.
बाँधने लगे अपने ही पैरों में बेड़ियाँ 
ताकि फिर ना लग सके उन्हें
हल्की सी भी ठोकर .
मैं हतप्रभ हूँ,
कैसी अजीब है यह दोरंगी नीति

....................नीरज कुमार नीर
चित्र गूगल से साभार 

5 comments:

  1. बहुत सुंदर ! yahi yathaarth hai.

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  2. SATYAWACHAN.......SUNDAR PRASTUTI

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  3. यही तो महिमा है समाज की ... खातार्नाम खेल है ये ....

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  4. अजब तमाशा है, भिन्न दृष्टि।

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  5. बहुत ही खूब भाई!

    इस दोरंगी नीति को खूब कहा ! हतप्रभ मैं भी हूँ !
    नमन भाई !

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