(ककसाड के जुलाई अंक में प्रकाशित)
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देख कर साँप,आदमी बोला,
बाप रे बाप !
अब तो शहर में भी
आ गए साँप।
साँप सकपकाया,
फिर अड़ा
और तन कर हो गया खड़ा।
फन फैलाकर
ली आदमी की माप।
आदमी अंदर तक
गया काँप ।
आँखेँ मिलाकर बोला साँप :
मैं शहर में नहीं आया
जंगल मे आ गयें हैं आप ।
आप जहां खड़े हैं
वहाँ था
मोटा बरगद का पेड़ ।
उसके कोटर मे रहता था
मेरा बाप ।
आपका शहर जंगल को खा गया ।
आपको लगता है
साँप शहर में आ गया ।
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#नीरज
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आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति डेंगू निरोधक दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति....
ReplyDeleteसच खेती-बाड़ी और जंगल को शहर लील रहा है ..
ReplyDeleteबहुत सटीक रचना
सच है आपकी रचना ... और न जाने कहाँ तक और जायगा इंसान .. अपनी भूख बढाता ही जा रहा है आदमी ...
ReplyDeleteखूबसूरत शब्द ! यही सच है , हम जंगल में हैं और उनके घरों पर कब्जा कर रहे हैं !! बहुत ही शानदार और सार्थक प्रस्तुति नीर साब
ReplyDeleteek dum mast post ekdum achi hai
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