हे भागीरथी !
हमें पुरखों से भान था तुम्हारी प्रचंडता का.
परन्तु विश्वास था,
भागीरथ को प्राप्त वर पर,
चंद्रशेखर की सुशोभित जटाओं पर
मानव कल्याण के विहित मार्ग से
जनान्तक क्यों हुई /
भागीरथ प्रयास विफल हुआ /
गंगाधर की जटाओं में तुम ना समाओ/
यह तो परे है प्रज्ञा की सीमा से/
असीम दिगंत की इच्छा मात्र से ही तो तुम भी हो .
******
हे केदार नाथ !
आप अपने दिए वर से विचलित हो,
यह तो परे है, बुद्धि की सीमा से/
यह कार्य कारणवाद भी तो नहीं/
तर्क और विवेक की सीमा है/
सम्यकता की भी सीमा है.
हृदय विह्वल है,
मेरी विह्वलता यद्यपि अर्थहीन है.
****
हे हिमालय!
तुम क्यों रोये ?
तुम रक्षक थे भारती के ,
उनके पुत्रों की रक्षा भी दायित्व था तुम्हारा .
अपने अधिपति के भक्तों को मृत्यु मुख में डाला .
कई होंगे तुम्हारे अपराधी,
तुम्हें नंगा करने वाले,
प्रदूषित करने वाले,
पर इसकी इतनी वृहद सजा
बगैर, भेद के.
हिमालय सा धैर्य
हिमालय सी सहिष्णुता
अर्थ खो चुकी है .
...... नीरज कुमार ‘नीर’
हमें पुरखों से भान था तुम्हारी प्रचंडता का.
परन्तु विश्वास था,
भागीरथ को प्राप्त वर पर,
चंद्रशेखर की सुशोभित जटाओं पर
मानव कल्याण के विहित मार्ग से
जनान्तक क्यों हुई /
भागीरथ प्रयास विफल हुआ /
गंगाधर की जटाओं में तुम ना समाओ/
यह तो परे है प्रज्ञा की सीमा से/
असीम दिगंत की इच्छा मात्र से ही तो तुम भी हो .
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हे केदार नाथ !
आप अपने दिए वर से विचलित हो,
यह तो परे है, बुद्धि की सीमा से/
यह कार्य कारणवाद भी तो नहीं/
तर्क और विवेक की सीमा है/
सम्यकता की भी सीमा है.
हृदय विह्वल है,
मेरी विह्वलता यद्यपि अर्थहीन है.
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हे हिमालय!
तुम क्यों रोये ?
तुम रक्षक थे भारती के ,
उनके पुत्रों की रक्षा भी दायित्व था तुम्हारा .
अपने अधिपति के भक्तों को मृत्यु मुख में डाला .
कई होंगे तुम्हारे अपराधी,
तुम्हें नंगा करने वाले,
प्रदूषित करने वाले,
पर इसकी इतनी वृहद सजा
बगैर, भेद के.
हिमालय सा धैर्य
हिमालय सी सहिष्णुता
अर्थ खो चुकी है .
...... नीरज कुमार ‘नीर’
बहुत बढ़िया,सुंदर प्रस्तुति,,,
ReplyDeleteRecent post: एक हमसफर चाहिए.
वाह बहुत ही अच्छा लगा, धन्यवाद.
ReplyDeleteकहते हैं "जैसे करनी वैसे भरनी " कर्णधारों का कर्मफल जनता भोग रही है
ReplyDeletelatest post जिज्ञासा ! जिज्ञासा !! जिज्ञासा !!!
बिलकुल सही सवाल पूछा है आपने. सुन्दर रचना.
ReplyDeleteद्रवित करते प्रश्न...अनुपस्थित उत्तर
ReplyDeleteआपकी पोस्ट को कल के ब्लॉग बुलेटिन श्रद्धांजलि ....ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ...आभार।
ReplyDeleteबहुत आभार ।
Deleteउत्क्रुस्त , भावपूर्ण एवं सार्थक अभिव्यक्ति .
ReplyDeleteसामयिक और सटीक प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDelete@मानवता अब तार-तार है
Patience has limit. Anger of a patient person can be devastating.
ReplyDeleteजब अती आ जाती है तो धरी खत्म हो जाता है ...
ReplyDeleteशायद ये एक चेतावनी ही है ...
हिमालय खुद अपना ही अर्थ खो चुका है - एक निरा पर्वत (station of hill stations) जहाँ तीर्थयात्री नहीं tourist जाते हैं छुट्टियां मनाने के लिए।
ReplyDeleteअनुत्तरित निशब्द
ReplyDeleteसार्थक सामयिक अभिव्यक्ति
सही सवाल पूछा है आपने
ReplyDeleteकेदारनाथ त्रासदी की पीड़ा शब्दों के माध्यम से मानो बह गयी यहाँ आपकी कविता में !!!
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